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सम्यक्त्वशल्योद्धार
इस ऊपर से यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि ढूंढियों के गुरु काल कर के उस के मत मताबिक देवता तो नहीं होने चाहियें क्योंकि देवता में सम्यक्त्वी और मिथ्य ऐसी दो जातियां हैं । उन में जो सम्यक्त्वी हो तो सूर्याभ आदि की तरह जिनप्रतिमा
और जिन दाढा पूजे और मिथ्यात्वी कहते तो उन की जबान चले नहीं, मनुष्य भी न होवे, क्योंकि ढूंढिये उन को चारित्री मानते हैं । और चारित्री काल कर के मनुष्य हो नहीं, सिद्धि भी पंचम काल में प्राप्त होगी नहीं, तो अब ऊपर कही तीन गतियों के सिवाय फक्त नरक और तिर्यंच ये दो गति रही। इन में से उनको कौन सी गति भला पसंद पड़ती होगी ?
श्रीठाणांगसूत्र के दश में ठाणे में दश प्रकार के धर्म कहे हैं, जेठमल लिखता है कि इन दश प्रकार के धर्म में से देवता का कौन सा धर्म है ? उस का उत्तर - सम्यग्दृष्टि देवता को श्रुतधर्म भगवंत की आज्ञा मुताबिक है। ___ और सूर्याभ ने धर्मव्यवसाय लेके प्रथम जिन दाढा तथा जिनप्रतिमा पूजी है, जो कि तद् पीछे अन्य चीजों की पूजा की है। परंतु वहां प्रणाम नहीं किया है। नमुत्थुणं नहीं कहा है । इस वास्ते उस ने जिनप्रतिमा तथा जिन दाढा की पूजा की है। सो सम्यग्दृष्टिपणे की समझनी ।
श्रीठाणांगसूत्र के पांचवें ठाणे में सम्यग्दृष्टि देवता के गुणग्राम करे तो सुलभ बोधि हो ऐसे कहा है । यत -
पंचहिं ठाणेहिं जीवा सुलहबोहित्ताए कम्मं पकरेंति तं जहा अरिहंताणं वण्णं वयमाणे जान गिविक्कतनबंभचेराणं देवाणं वण्णं वयमाणे
अब विचार करना चाहिये कि जिन के गुणग्राम करने से जीव सुलभ बोधि होता है, उन की की पूजादि धर्मकरणी का मोक्षफल क्यों न होवे ? जरूर ही
होगा ।
।। इति ।।
२२. चित्रामकी मूर्ति देखनी न चाहिये इस बाबत :
श्रीदशवकालिकसूत्र के आठवें अध्ययन में कहा है कि भींत (दीवाल) के ऊपर स्त्री की मूर्ति लिखी हुई हो सो साधु नहीं देखे । क्योंकि उस के देखने से विकार उत्पन्न होता है- यत -
चित्तभित्तिं ण णिज्जाए, नारी वा सुअलंकियं । भक्खरं पिव दळूणं, दिठिं पडिसमाहरे ।।१।।
अर्थ - चित्राम की भींत नहीं देखनी उस पर स्त्री आदि होवे सो विकार पैदा करने का हेतु है । इस वास्ते जैसे सूर्य सन्मुख देखके दृष्टि पीछे मोड़ लेते हैं वैसे ही
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