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________________ १०७ परस्पर एकदूसरे के कहने से और कितनेक हमारा यह उचित काम है ऐसा जान के आते हैं। जेठमल लिखाता है कि "श्रीअष्टापदजी ऊपर ऋषभदेव स्वामी का निर्वाण हुआ तब इंद्र ने एक स्तूभ कराया है" सो मिथ्या है, क्योंकि श्री जंबूद्वीपपन्नत्तीसूत्र में अरिहंतका, गणधर का और शेष अणगार का ऐसे तीन स्तंभ इंद्र ने कराये ऐसे कहा है। यतः - तएणं सक्के देविंदे देवराया बहवे भवणवइ जाव वेमाणिए देवे जहारियं एवं वयासी खिाप्पामेव भो देवाणुप्पिया सव्वरयणमए महालए तओ चेइयथूभे करेह एगं भगवओ तित्थयरस्स चियगाए एगं गणहर चियगाए एगं अवसेसाणं अगाराणं चियगाए । अर्थ - तद पीछे शक्र देवेंद्र देवता का राजा बहुत भुवनपति यावत् वैमानिक देवताओं प्रति यथायोग्य ऐसे कहता हुआ कि जलदी हे देवानुप्रियो ! सर्व रत्नमय अत्यंत विस्तीर्ण ऐसे तीन चैत्यस्तूभ करो । एक भगवंत तीर्थंकर की चितास्थान ऊपर, एक गणधर की चिता उपर, और एक अवशेष साधुओं की चिता ऊपर । जेठमल "श्रावक ने चैत्य नहीं कराये" ऐसे लिखता है, परंतु श्रावकों से चैत्य कराये गये का अधिकारसूत्रो में बहुत ठिकाने है । जो पूर्व लिख आए हैं और आगे लिखेंगे। जेठमल लिखता है कि "साक्षात् भगवंत को किसीने नमुत्थुणं नहीं कहा है"। उत्तर-सूर्याभ के साक्षात् भगवंत को नमुत्थुणं कहने का खुलासा पाठ श्रीरायपसेणीसूत्र में है। इस वास्ते जेठमलका यह लिखना भी केवल मिथ्या है। श्रीभगवतीसूत्र में देवता को नोधम्मिआ' कहा है । ऐसे जेठमल लिखता है । उत्तर-उस ठिकाने देवता को चारित्र की अपेक्षा नोधम्मिआ कहा है । जैसे इसी भगवतीसूत्र के लद्धि उदेश में सम्यग्दृष्टि को चारित्र की अपेक्षा बाल कहा है, वैसे उस स्थल में देवता को चारित्र की अपेक्षा नोधम्मिआ कहा है; परंतु इस से श्रुत और । की अपेक्षा को नोधमिआ नहीं समझना क्योंकि सम्यक्त्व की अपेक्षा देवता को संवरी कहा है। श्रीठाणांगसूत्र में सम्यक्त्व को संवर धर्म रूप कहा है। और जिन प्रतिमा का पूजन करना सो सम्यक्त्व की करणी है । ढूंढियों ! जो जेठमल के लिखे मुताबिक देवता को नोधम्मिआ गिनके उन की करणी अधर्म में कहोगे तो कोई देवता तीर्थंकर को साधु को और श्रावक को उपसर्ग और कोई उनकी सेवा करे, उन दोनों को एक सरीखा फल हो या जुदा जुदा ? जुदा जुदा ही हो, तथा कोई शिष्य काल कर के देवता हुआ हो वह अपने गुरु को चारित्र से पतित हुआ देख के उस को उपदेश दे के शुद्ध रास्ते में ले आवे तो उस देवता को धर्मी कहोगे या अधर्मी ? धर्मी । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003206
Book TitleSamyaktva Shalyoddhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Punyapalsuri
PublisherParshwabhyudaya Prakashan Ahmedabad
Publication Year1996
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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