________________
१०६
सम्यक्त्वशल्योद्धार
के सोलहवें अध्यधन में विराधित संयमी सुकुमालिका ईशान देवलोक में गई ऐसे कहा है। तथा श्रीउववाइसूत्र में तापस उत्कृष्ट ज्योतिषि तक जाते हैं ऐसे कहा है। और भगवतीसूत्र में तामलि तापस ईशानेंद्र हुआ ऐसे कहा है, इत्यादिक बहुत चर्चा है । परंतु ग्रंथ बढ जाने के कारण यहां नहीं लिखी है, जब सूत्रो में इस तरह है तो ग्रंथों में हो इस में कुछ आश्चर्य नहीं है । सूर्याभ ने प्रभु को ६ बोल पूछे । इस से बारह बोल वाले सूर्याभ विमान में जाते हैं ऐसे जेठमलने ठहराया है। परंतु सो झूठ है, क्योंकि छद्यस्थ जीव अज्ञानता अथवा शंका से चाहो जैसा प्रश्न करे तो उस में कोई आश्चर्य नहीं है, तथा "देवता संबंधी बारह बोल की पृच्छा सूत्र में है परंतु मनुष्य संबंधी नहीं है । इस वास्ते बारह बोल के देवता होते हैं" ऐसे जेठे ने सिद्ध किया है तो मनुष्य संबंधी बारह बोल की पृच्छा न होने से जेठ ने लिखो मुताबिक कया मनुष्य बारह बोल के नहीं होते हैं ? परंतु जेठमल ने फक्त जिनप्रतिमाके उत्थापन करने वास्ते तथा मंदमति जीवों को अपने फंदे में फंसाने के निमित्त ही ऐसी मिथ्या कुयुक्तियां की हैं। ___ और देवता की करणी को जीत आचार ठहरा के जेठमल उस करणी को गिनती में से निकाल देता है । अर्थात् उस का कुछ भी फल नहीं ऐसे ठहराता है। परंतु इस में इतनी भी समझ नहीं कि इंद्र प्रमुख सम्यग्दृष्टि देवताओं का आचारव्यवहार कैसा है ? वह प्रभु के पांचों कल्याणकों में महोत्सव करते हैं, जिनप्रतिमा और जिन दाढा की पूजा करते हैं, अठवे (८) नंदीश्वरद्वीप में अट्ठाई महोत्सव करते हैं । मुनि महाराजा को वंदना करने वास्ते आते हैं, इत्यादि सम्यग्दृष्टि समग्र करणी करते हैं । परंतु किसी जगह अन्य हरिहरादिक देवों को तथा मिथ्यात्वियों को नमस्कार करने वास्ते गये, पूजने वास्ते गये, उनके गुरुओं को वंदना की, उन का महोत्सव किया इत्यादि कुछ भी नहीं कहा है। इस वास्ते उन की की सर्व करणी सम्यग्दृष्टिकी है, और महापुण्यप्राप्ति का कारण है, और जीतआचार से पुण्यबंध नहीं होता है ऐसे कहां कहा है ? |
जेठमल केवलकल्याणक का महोत्सव जीतआचार में नहीं लिखता है । इस से मालूम होता है कि उस में तो जेठमल पुण्य बंध समझता है, परंतु श्रीजंबूद्वीपपन्नत्तीसूत्र में तो पांचों ही कल्याणकों के महोत्सव करने वास्ते धर्म और जिनभक्ति जान के आते हैं ऐसे कहा है। इस वास्ते जेठे ने जो अपने मनपसंद के लेख लिखे हैं सो सर्व मिथ्या है। श्रीजंबूद्वीपपन्नत्तीसूत्र के तीसरे अधिकार में कहा है कि -
अप्पेगइया वंदणवत्तियं एवं पूयणवत्तियं सक्कार-सम्माण-दसण-कोउहल्ल अप्पे सक्कस्स वयणुयत्तमाणा अप्पे अण्णमण्णमणुयत्तमाणा अप्पे जीयमेतं एवमादि । __ अर्थ - कितनेक देवता वंदना करने वास्ते, कितनेक पूजा वास्ते, सत्कार वास्ते, सन्मान वास्ते, दर्शन वास्ते, कुतूहल वास्ते, कितनेक शकेंद्र के कहने से, कोई कोई
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org