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________________ १०५ सूत्रों में किसी जगह भी कुलधर्म नहीं कहा है । जेठा इस को लौकिक जीतव्यवहार की करणी ठहराता है, परंतु यह करणी तो लोकोत्तर मार्ग की है । "जिनदाढा की आशातना टालने वास्ते इंद्रादिक सुधर्मा सभा में भोग नहीं भोगते हैं । तथा मैथुन संज्ञा से स्त्री के शब्द का भी सेवन नहीं करते हैं ।" ऐसे पूर्वोक्त सूत्रपाठ में कहा है । तथापि बिना अकल के बेवकूफ आदमी की तरह जेठमल ने कितनीक कुयुक्तियां लिखी हैं सो मिथ्या हैं, इस प्रसंग में जेठे ने कृष्ण की सभा की बात लिखी है कि "कृष्ण की भी सुधर्मा सभा है । तो उस में क्या भोग नहीं भोगते होंगे ?" उत्तर-सूत्रों में ऐसे नहीं कहा है कि कृष्णकी सभा में विषयसेवन नहीं होता है। इस प्रकार लिखने से जेठे का यह अभिप्राय मालूम होता है कि ऐसी ऐसी कुयुक्तियां लिख के दाढा का महत्त्व घटा दे परंतु पूर्वोक्त पाठ में सिद्धांतकार ने खुलासा कहा है कि दाढा की आशातना टालने के निमित्त ही इंद्रादिक देवता सुधर्मा सभा में भोग नहीं भोगते हैं । तामलि तापस ईशानेंद्र हो के पहले प्रथम जिनप्रतिमा की पूजा करता हुआ सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ है। इस बाबत में जेठा कुमति उसकी की पूजा को मिथ्यादृष्टित्व में ठहराता है सो मिथ्या है क्योंकि उस ने इंद्रपणे पैदा हो के जिनप्रतिमा की पूजा कर के तत्काल ही भगवंत महावीर स्वामी के समीप जा के प्रश्न किया और भगवंतने आराधक कहा । पूर्वभव में तो वह तापस था । इस वास्ते इस भव में उत्पन्न हो के तत्काल से जिनप्रतिमा की पूजा के कारण से ही आराधक कहा है ऐसे समझना' । ___अभव्यकुलक में कहा है कि अभव्य का जीव इंद्र न हो। इस बाबत जेठमल कहता है कि "इंद्र से नवग्रैवेयक वाले अधिक ऋद्धि वाले हैं अहमिंद्र और वहां तक तो अभव्य जाता है तो इंद्र न हो उसका क्या कारण ?" उत्तर-यथा कोई शाहुकार बहुत धनाढ्य अर्थात् गाम के राजा से भी अधिक धनवान् हो राजा से नहीं मिलता है । तथैव अभव्य का जीव इंद्र न हो और ग्रैवेयक में देवता हो उस में कोई बाधक नहीं, ऐसा स्पष्ट समझा जाता है। जैसे देवता चय के एकेंद्रिय होता है। परंतु विकलेंद्रिय नहीं होता है। (जो कि विकलेंद्रिय एकेंद्रिय से अधिक पुण्य वाले हैं) तथा एकेंद्रिय से निकल के एकावतारी हो के मोक्ष जाते हैं। परंतु विकलेंद्रिय कि जिसकी पुण्याई एकेंद्रिय से अधिक गिनी जाती है उस में से निकल के कोई भी जीव एकावतारी नहीं होता है। इस वास्ते जैसी जिस की |स्थिति बंधी हुई है वैसी उस की गति-अगति होती है। ___"अभव्यकुलक में इंद्र का सामानिक देवता अभव्य न हो ऐसे कहा है तो संगम अभव्य का जीव इंद्र का सामानिक क्यों हुआ ?" ऐसे जेठमल लिखता है उस का उत्तर-जैनशास्त्र की रचना विचित्र प्रकार की है, श्रीभगवतीसूत्र के प्रथम शतक के दूसरे उद्देश में विराधित संयमी उत्कृष्ट सुधर्म देवलोक में जावे ऐसे कहा है। और ज्ञातासूत्र १ यह जिनपूजा थी आराधक ईशान इन्द्र कहायाजी ऐसा पूर्वमहात्माओं का वचन भी है ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003206
Book TitleSamyaktva Shalyoddhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Punyapalsuri
PublisherParshwabhyudaya Prakashan Ahmedabad
Publication Year1996
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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