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जबरदस्त था। पूज्यश्री को अनेक अवरोध, संघर्ष और चुनौतियों का सामना करना पड़ा था। इसके लिए जान की बाजी लगाकर बहादुर सैनिक की तरह उन्हें सामना करना पड़ा था। ऐसे प्रतिकूल समय में भी हताश-निराश न होकर पूज्यश्री ने अकेले ही सत्य का समर्थन, संरक्षण, संवर्धन पूरी ताकत से और अधिक परिश्रम उठाकर किया था । फलस्वरूप सात हजार श्रावक मूर्ति पूजक बने थे। और सोलह साधुओं के साथ पूज्यश्री स्थानकवासी मत को तिलांजली देकर श्वेतांबर मूर्तिपूजक साधु बने थे। ___ 'सम्यक्त्वशल्योद्धार' ग्रंथ का सर्जन भी पूज्यश्री की इस सत्यनिष्ठा का ही परिणाम हैं । इस ग्रंथ की रचना हुई इनमें कारण एक जेठमल नामक ढूंढक साधु की असत्य - कूट उपदेश और निराधार युक्ति से पूर्ण सम्यक्त्वसार नामक एक किताब थी । मूर्ति-पूजा के विरुद्ध जिनाज्ञा और शास्त्र निरपेक्ष कई बातों से कूट-कूट कर भरे हुए इस ग्रंथ का तीव्र निषेध करने की जब आवश्यकता महसूस हुई तब उनके प्रतिकार के लिए पूज्यपाद श्री आत्मारामजी म. ने अपनी कलम उठाई और स्थल-स्थल पर आगम और आगममान्य प्रकरण ग्रंथों को साक्षी देकर जिस ग्रंथ का नवसर्जन किया वो ही 'सम्यक्त्वशल्योद्धार' नाम से प्रसिद्ध हुआ । पूज्यश्री ने जेठमल साधु की बातों का इतना तर्क शुद्ध और श्रद्धापूर्ण खंडन किया कि आज भी यह ग्रंथ तटस्थ जिज्ञासु प्राणिओं के लिए अनोखा राहबर बनता है और जिनशासन का गौरव बढ़ाता है।
चतुर्थ आवृत्ति के रूप में प्रकाशित हो रहे इस ग्रंथ की रचना की शुरूआत पूज्यश्रीने वि.सं. १९४० (ई.सं. १८८३) में बिकानेर के चातुर्मास में की और वि.स. १९४० (ई.सं. १८८४) में इस ग्रंथ की पूर्णाहूति अहमदाबाद के चातुर्मास में की। इस चातुर्मास में ‘इस ग्रंथ की पूर्णाहूति और शांतिसागर यति से वाद' यह दोनों महत्त्वपूर्ण जिनशासन की प्रभावना के कार्य पूज्यश्री ने किये थे। यह ग्रंथ पूज्यश्री ने गुजराती भाषा में लिखा और सबसे पहले श्री जैन धर्मप्रसारक सभा - भावनगर की ओर से प्रकाशित हुा । इस ग्रंथ को हिन्दी भाषी जनता भी पढ़ सके व सत्य को पा सके इसलिए वडोदरा के श्री गोकुलभाई ने हिन्दी भाषा में छपवाया। इसके बाद भाषा के अल्प तफावत के साथ आत्मानन्द जैन सभा - पंजाब की ओर से पुनःप्रकाशित किया गया । आज यह बड़ी |आनंद की बात है कि ग्रंथकर्ता पूज्यश्री की स्वर्गगमन शताब्दि के स्मृति प्रसंग पर यह ग्रंथ की चतुर्थावृत्ति प्रकाशित हो रही है । इस ग्रंथ के विशेष परिचय के लिए इसमें समाविष्ट 'पूर्वावृत्ति की प्रस्तावना' का पठन करे ऐसा पाठकों को अनुरोध है।
पुनः प्रकाशन की कुछ बात : वि.सं. २०५२ का वर्ष यानी ग्रंथकर्ता पू. आत्मारामजी म. की स्वर्गारोहण शताब्दि पर्व मनाने का एक अनोखा अवसर ! यह अवसर जैन संघ के लिए गौरवपूर्ण बात है। समस्त जैन शासन की आन-मान और शान को बढ़ानेवाले तपागच्छ के सूरिपुरन्दर पूज्यश्री के रचे गये सभी ग्रंथों का
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