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________________ प्रवाह गति करते करते नात्रपूजा तक पहुँचा है । जैन तत्त्वादर्श, अज्ञानतिमिरभास्कर, चतुर्थस्तुतिनिर्णय(भा. १-२) तत्त्वनिर्णयप्रासाद, सम्यक्त्वशल्योद्धार, ईसाई मत समीक्षा आदि अनेक सुरुचिपूर्ण ग्रंथों का नवसर्जन करके पूज्यश्री ने सिर्फ भारत के ही नहीं लेकिन विदेश के भी दिग्गज पंडित और विद्वानों को अपनी बुद्धि-प्रतिभा से प्रभावित किया था। इसीलिए तो इस देश की सीमा को पार करके परदेश में पहुँची हुई इनकी कीर्ति ने परदेशियों द्वारा भी उन्हीं को 'जैन धर्म और जैन साहित्य के विद्वानों ने मान्य किये निहायत निद्वान और सबसे बड़े व्यक्तित्त्व धारक पुरुष हैं। ऐसा सन्मान दिलवाया था । शायद जैन शासन में यह प्रथम ही प्रसंग था कि विदेश में भी एक जैन मुनि ने यह सन्मान प्राप्त किया हो । पंजाब जैसे दूर प्रदेश में भी सिक्ख जाति के कपूर क्षत्रिय कुल में पैदा होने पर भी किसी निमित्त के कारण स्थानकवासी पंथ की प्रव्रज्या प्राप्त करने पर भी वे जैनदर्शन को यथार्थ रूप में समझ सके, सही मार्ग को प्राप्त कर सके इसका कारण उनकी विद्वत्ता के साथ-साथ 'सत्य ही प्राप्त करना' यह उनका असिव्रत था । सत्य को प्राप्त करने की उत्कंठा थी। सत्य का दूसरा नाम पूज्य आत्मारामजी म. था । सत्य उनका जीवन नहीं किंतु प्राण था । सत्य उनका शरीर नहीं किंतु उनकी आत्मा थी । सत्य उनका प्रेय ही नहीं, ध्येय था । 'सत्य के बिना सब कुछ व्यर्थ' ऐसा वह मानते थे । यदि जीवन में सत्य प्राप्त नहीं किया और उसे आचरण में नहीं लाया गया तो मानव जन्म भी असफल रहेगा, ऐसी उनकी स्पष्ट मान्यता थी । इसीलिए ही तो जब स्थानकवासी संप्रदाय के वरिष्ठ अमरसींघजी पज्य आत्मारामजी महाराज को एकांत में बुलाकर समझाने लगे कि 'तुम तो अपने धर्म में रल जैसे पैदा हुए हो, इसलिए अपने में मतभेद पैदा हो ऐसा तुम्हें नहीं करना चाहिए' तब पूज्य आत्मारामजी म. ने जो कहा था वह याद रखने योग्य है । 'शास्त्रों में पूर्वाचार्य महात्माएं जो कह गये हैं। उससे उलटी प्ररुपणा तो मैं कदापि नहीं करूँ। मैं तो आपको भी यही विनती करता हूँ कि सत्यासत्य का निर्णय आप अवश्य कर लें और मिथ्या आग्रह छोड़ दें ! क्योंकि यह मनुष्यावतार बारबार मिलता नहीं है' पूज्यश्री की इस सत्यनिष्ठा ने ही उन्हीं को सन्मार्ग की ओर प्रेरित किया और सत्य की उपलब्धि के बाद वे भी इसके साथ दृढता से लगे रहे ! ___'सत्य किसी भी समय असत्य प्रेमी को कडुआ प्रतीत होता है। इसलिए सत्य द्वेषी ऐसे लोग सत्य का गला घोंटने का प्रयास करते हैं। इसी प्रकार उनके समय में भी ऐसे लोगों की कमी नहीं थी। सत्य के संवर्धन-संरक्षण के लिए पूज्यश्री को भरसक प्रयत्न करना पड़ा । सत्य प्राप्त करना आसान है, उसे संभालना कठिन है । साधना का प्रथम सोपान सत्य है तो बाद का सोपान है सत्त्व । पूज्यश्री के पास यह सत्त्व गुण भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003206
Book TitleSamyaktva Shalyoddhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Punyapalsuri
PublisherParshwabhyudaya Prakashan Ahmedabad
Publication Year1996
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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