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________________ ( ७२ ) लेकर अपना जैनमेघदूत लिखा। वैसे जैन काव्य-समाज में मेरुतुंग नाम के दो-तीन विद्वान् हुए हैं। उनमें से ग्रन्थकार के रूप में केवल दो ही मेरुतुग प्रसिद्ध हुए हैं। एक मेरुतुग जो चंद्रप्रभसूरि के शिष्य हैं और जिनकी समय-मर्यादा विक्रम की चतुर्दश शताब्दी है। इन्होंने महापुरुष चरित, थेरावली, षट्दर्शनविचार आदि अनेक ग्रंथ लिखे हैं। जैनसाहित्य में यह विद्वान् भी आचार्य मेरुतुग के नाम से विख्यात हैं। दूसरे मेरुतुग अञ्चलगच्छीय महेन्द्रप्रभसूरि के शिष्य हैं। यह द्वितीय मेस्तुग आचार्य ही 'जैनमेघदूत' नामक काव्य के रचनाकार हैं । इनका काल विक्रम की पञ्चदश शताब्दी निर्धारित है। ___ मारवाड़ में स्थित नाणी ग्राम के पोरवाल वंशीय वहोरा वैरसिंह की पत्नी नीलदेवी के गर्भ से वि० सं० १४०३ में इस काव्यकार का जन्म हुआ। वस्तिक, वस्तो या वस्तपाल इसका बचपन का नाम था। अञ्चलगच्छ के प्रसिद्ध आचार्य श्री महेन्द्रपालसूरि से वहोरा वस्तिक ने दीक्षा ली, तब इस बालक का नाम 'मेरुतुग' रखा गया। कालक्रम से उसके चरित्र, ज्ञान और क्रियाओं का जब पूर्ण विकास हो चुका, तब उसके गुरु ने वि० सं० १४२६ में उसे पाटन में 'सूरि' पद प्रदान किया। वि० सं०१४४५ फाल्गन वदी एकादशी को उसे 'गच्छ-नायक' की भी पदवी प्राप्त हुई। गच्छ और अपने संच पर उसका अच्छा प्रभाव था। यह बात उसके बाद की कुछ टिप्पणियों से भी ज्ञात होता है। वि० सं० १४७१ मार्गशीर्ष सुदी पूर्णिमा के दिन पाटन में इस विद्वान् का स्वर्गवास हो गया। इस प्रकार अपने ६८ वर्ष के दोघं जीवन-काल में यह विद्वान् सर्वदा अपने और अपने समाज के विकास में ही लगा रहा । अञ्चलगच्छ की पदावली तथा उसके रास इत्यादि से लेखक के सम्बन्ध में उपरितन निर्णय न हो सका। इस कवि ने जैनमेघदूत काव्य के अतिरिक्त सप्ततिकाभाष्य, लघुशतपदी, धातुपारायण, षड्दर्शन-समुच्चय, बाल-बोध व्याकरण, सरिमन्त्रकल्पसारोद्धार आदि अन्य ग्रन्थों को भी रचा है। कवि ने प्रायः प्रत्येक ग्रन्थ के अन्त में प्रशस्ति दी है. पर उसके रचना-काल का विवरण कहीं भी नहीं दिया है । इससे प्रत्येक ग्रन्थ का काल-निर्धारण अति कष्टसाध्य है। आचार्य ने इस मेघदूत के अन्त में तो ग्रन्थकार के रूप में अपना नाम भी नहीं दिया है, पर सप्ततिका-भाष्य की वृत्ति को प्रशस्ति में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003193
Book TitleJain Sahitya ke Vividh Ayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1981
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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