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श्रमण भगवान् महावीर
ने तीर्थंकर की साक्षी से चन्द्रप्रद्योत को अपना भाई बना लिया और राजकुमार उदायन के भाग्य को डोर उसी के हाथों में सौंप दी । यह एक चमत्कार था, जबकि शत्रु भाई बन गया, आक्रामक ने ही संरक्षण का दायित्व उठा लिया। तब से वत्स और अवन्ती में मैत्री सम्बन्ध स्थापित हो गए ।
यह है महावीर का राजनीति एवं युद्धनीति में भी प्रेम का प्रयोग !
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प्रेम का चमत्कार : दुष्ट
भी
साधु बन गए :
श्रमण भगवान् महावीर ने विश्वास के आधार पर विश्व को बदला, प्रेम और सद्भाव के बल पर संसार को जीता । अर्जुन माली जैसे हत्यारे को जब लोगों ने महावीर की धर्म सभा में उपस्थित हुआ देखा, और यह देखा कि वह महावीर का शिष्य बन रहा हैतो किसी को भी अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ । पर महावीर मनुष्य की श्रेष्ठता में विश्वास करते थे, मानव हृदय की पवित्रता को वे समझते थे । अर्जुन को प्रव्रजित करके उन्होने जनता की समस्त आशंकाओं को निर्मूल कर दिया और इस विश्वास को झकझोर दिया कि पतित कभी पावन नहीं बन सकता । अर्जुन की क्षमासाधना, सहिष्णुता और शांति देखकर हजारों-हजार लोग मानने लगे कि तीर्थंकर महावीर की वाणी में वह अपूर्व चमत्कार है, जो पतितों को पावन एवं दुष्टों को साधु बना देती है ।
मगध के प्रचंड और दुर्दात तस्कर रौहिणेय को जब महावोर का शिष्य बना सुना तो शायद महावीर का परमभक्त सम्राट् श्रेणिक भी चकित रह गया होगा कि यह क्या बात है ! जिस दस्युराज को पकड़ने में मगध साम्राज्य की समस्त शक्तियाँ असफल हो गई, वह दस्युराज तीर्थंकर के समक्ष आकर सहज भाव से आत्म समर्पण कर देता है, और जीवन भर चोरी करके लूटी हुई विशाल सम्पत्ति जनता को वापिस लौटा कर साधु बन जाता है ।
के
ये घटनाएँ इस बात को स्पष्ट कर देती हैं कि तीर्थंकर महावीर अन्तर् में प्रेम और सद्भाव का कोई ऐसा अक्षय स्रोत था, जो क्रूर एवं दुष्ट हृदयों की शुष्कभूमि को भी सद्भाव एवं सहानुभूति के अमृतरस से परिप्लावित कर देता था ।
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