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श्रमण संस्कृति : सिद्धान्त और साधना तीर्थंकर महावीर के जीवन के उपर्युक्त भव्य प्रसंगों से उनके विराट् एवं सार्वदेशीय व्यक्तित्व का एक प्रतिबिम्ब हमारे सामने उभर आता है कि युग की गति को उन्होंने एक नया मोड़ दिया, नया चितन दिया और उस चितन को अपने जीवन में साकार करके जन-जन की आस्था को वहाँ केन्द्रित किया।
उनके जीवन के हजारों-हजार प्रसंग इस बात के साक्षी हैं कि उनका जीवन क्षमा का जीवन था। इस क्षमा के आधार पर ही उनके तत्त्वदर्शन का महाप्रासाद खड़ा था। उनका पहला उद्घोष था—मानवजीवन की श्रेष्ठता एवं पवित्रता में विश्वास, और फिर तदनुकूल आचरण । इसी विश्वास को मूल मानकर उन्होंने जातिवाद का विरोध किया, याज्ञिक हिंसा को रोका, नारी एवं शूद्र को धर्म का अधिकार दिया और राष्ट्रीय जीवन से लेकर व्यक्तिगत जोवन तक में प्रेम, विश्वास और सद्भाव की अखण्ड ज्योति प्रज्वलित करने का प्रयत्न किया।
महावीर एक महामानव का समग्र रूप थे। उनकी प्रत्येक बात में मानवीय सदगुणों का परम विकसित आदर्श था, आध्यात्मिक विकास की चरम निष्पत्ति थी और कुल मिलाकर आत्मा से परमात्मा बनने का एक सच्चा विकासवादी जीवन दर्शन था। अपने बहत्तर वर्ष के जीवनकाल में, और अतीत के अनेक जन्मों की स्मृति के प्रतिखण्ड में उन्होंने मानव में यही विश्वास पैदा किया कि मानव महान् है, सर्वसत्ता-सम्पन्न है, वह अपना विकास अपने आप कर सकता है। जीवन के परिपाश्वों पर जो वैचारिक कुठाएँ, अन्धविश्वासों की परतें और अज्ञान की काली जंग जम रही है, उसे हटादे, तोड़ डाले तो मानव महामानव बन सकता है, आत्मा परमात्मा बन सकता है। जन जिन बन सकता है, तीर्थंकर और अर्हत् बन सकता है।
--उपाध्याय अमरमुनि
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