SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 81
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६८ श्रमण संस्कृति : सिद्धान्त और साधना I है । यदि पापों को छोड़ेंगे नहीं, तो धर्म में लग नहीं सकते, इसलिए दुव्यसनों व दुर्गुणों का त्याग करते ही रहना चाहिए । जिन्होंने त्याग किया, वे महापुरुष बने; और जिन्होने राग किया, वे संसार में परिभ्रमण करते रहे । जो भागों में आसक्त रहे, वे पाप बन्धन करते रहे। आरंभ-समारंभ द्वारा नित्य नये कर्मों का बन्ध होता रहता है । सबसे बड़ा त्याग रागभाव को छोड़ना है । राग छूट गया तो द्वेष भी छूट जाएगा, और वीतराग बन जाएँगे । मनुष्य का अहम् ही परमात्म पद प्राप्ति में सबसे बड़ा बाधक है । इसलिए यदि परमात्मा बनना है, तो राग भाव व अहम्भाव को त्याग दें । धर्म के दस प्रकारों में 'त्याग धर्म' एक महान् धर्म है । वैसे सभी मनुष्यों को कुछ न कुछ, किसी न किसी प्रकार का त्याग करना ही पड़ता है, पर अनिच्छा से व विवश होकर किया हुआ त्याग वास्तव में त्याग नहीं है । प्राप्त भोगों को इच्छापूर्वक छोड़ देना ही सच्चा त्याग है। त्यागी महापुरुषों का आदर्श सामने रखते हुए हमें भी अपने जोवन में अधिकाधिक त्याग करते रहना चाहिए। इसी त्यागधर्म को भगवान् महावीर ने अपरिग्रह के पावन नाम से मर्यादित किया है । परिग्रह सभी प्रकार की हिंसाओं का मूल है, और अपरिग्रह अहिंसा की आदि जननी है । जन धर्म निवृत्तिप्रधान धर्म है, त्याग ही इसका सारतत्त्व है । जितने अंश में त्याग बढ़ता है, आत्मा विशुद्ध बनती जाती है, स्वरूप में रमण करने लगती है, यही मोक्ष मार्ग है । इसीलिए जैन संस्कृति का मूलाधार त्याग कहा गया है । - अगरचंद नाहटा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003192
Book TitleShraman Sanskruti Siddhant aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalakumar
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1971
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy