SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 75
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रमण संस्कृति : सिद्धान्त और साधना को देखते हैं, तब हमें वही एक पक्ष सत्य जान पड़ता है। अनेकान्तवादी दर्शन की उपादेयता यह है कि वह मनुष्य को दुराग्रही होने से बचाता है। उसे यह शिक्षा देता है कि केवल तुम्हीं ठीक हो, ऐसी बात नहीं है, शायद वे लोग भी सत्य ही कह रहे हों जो तुम्हारा विरोध करते हैं। भाषा की दृष्टि से अनेकान्तवादी मनुष्य स्याद्वादी है, क्योंकि वह यह नहीं कहता कि "यही सत्य है", सदैव यह कहना चाहता है कि "शायद यह सत्य हो।"१ भारतीय साधकों की अहिंसाभावना स्यादवाद में अपने चरम उत्कर्ष पर पहुँची, क्योंकि यह दर्शन मनुष्य के भीतर बौद्धिक अहिंसा को प्रतिष्ठित करता है। संसार में जो अनेक मतवाद फैले हुए हैं, उनके भीतर सामंजस्य को जन्म देता है तथा वैचारिक भूमि पर जो कोलाहल और कटता उत्पन्न होती है, उससे विचारकों के मस्तिष्क को मुक्त रखता है। अनेकान्तवाद जैन दर्शन में सोया हुआ था। भारतवासी जैसे अपने दर्शन को अन्य बातें भूल चुके थे, वैसे ही अनेकान्तवाद का यह दुर्लभ सिद्धान्त भी उनकी आँखों से ओझल हो गया था। किन्तु नवोत्थान के क्रम में जैसे हमारे अनेक अन्य प्राचीन सत्यों ने दुबारा जन्म लिया, वैसे ही गाँधीजी में आकर अनेकान्तवाद ने भी नवजीवन प्राप्त किया। सम्पूर्ण सत्ता क्या है, इसे जानना बड़ा ही कठिन है। तात्तिवक दृष्टि से यही कहा जा सकता है कि प्रत्येक सत्यान्वेषी सत्य के जिस पक्ष के दर्शन करता है, वह उसी की बातें बोलता है। इसीलिए सत्य के मार्ग पर आये हुए व्यक्ति को सबसे बड़ी पहचान यह होती है कि वह दुराग्रही नहीं होता, न वह यही हठ करता है कि मैं जो कुछ कह रहा हूँ वही सत्य है । अपने ऊपर एक प्रकार का विरल संदेह, विरोधी और प्रतिपक्षी का मत ही ठीक हो, ये अनेकान्तवादी मनुष्य के प्रमुख लक्षण हैं। गाँधीजी पर ये सभी लक्षण घटित होते हैं, क्योंकि उनकी अहिंसा कायिक और वाचिक होने के साथ बौद्धिक भी थी और इसी बौद्धिक अहिंसा ने उन्हें समझौतावादी एवं विरोधियों के प्रति श्रद्धालु बना दिया था। जब १. अनेकान्त संशयवाद नहीं है, अपितु सत्य की एक निष्पक्ष निर्णायक दृष्टि है। -सं० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003192
Book TitleShraman Sanskruti Siddhant aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalakumar
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1971
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy