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अनेकान्तवाद
गाँधीजी “भारत छोड़ो" आन्दोलन की योजना बना रहे थे, तब सुप्रसिद्ध अमरीकी पत्रकार श्री लुई फिशर ने उनसे पूछा कि "आपके इस कार्य से युद्ध में बाधा पड़ेगी और अमरीकी जनता को आपका यह आन्दोलन पसन्द नहीं आएगा। आश्चर्य नहीं कि लोग आपको मित्रराष्ट्रों का शत्रु समझने लगें।" गाँधीजी यह सुनते ही घबरा उठे। उन्होंने कहा, "फिशर, तुम अपने राष्ट्रपति से कहो कि वे मुझे आन्दोलन छेड़ने से रोक दें। मैं तो मुख्यतः समझौतावादी मनुष्य हूँ, क्योंकि मुझे कभी भी यह नहीं लगता कि मैं ठीक राह पर हूँ।" .
— चूंकि अनेकान्तवाद से परस्पर-विरोधी बातों के बीच सामंजस्य आता है तथा विरोधियों के प्रति भी आदर की बुद्धि होती है, इस लिए, गाँधीजी को यह बात अत्यन्त प्रिय थी। उन्होंने लिखा है, "मेरा अनुभव है कि अपनी दृष्टि से मैं सदा सत्य ही होता है, किन्तु मेरे ईमानदार आलोचक तब भी मुझमें गलती देखते हैं। पहले मैं अपने को ही सही और उन्हें अज्ञानी मान लेता था, किन्तु अब मैं मानता हूँ कि अपनी-अपनी जगह हम दोनों ठीक हैं, कई अंधों ने हाथी को अलग-अलग टटोल कर उसका जो वर्णन किया था, वह दृष्टान्त अनेकान्तवाद का सबसे अच्छा उदाहरण है। इसी सिद्धान्त ने मुझे यह बतलाया है कि मुसलमान को जाँच मुस्लिम दृष्टिकोण से तथा ईसाई की परीक्षा ईसाई दृष्टिकोण से को जानी चाहिए। पहले मैं मानता था कि मेरे विरोधी अज्ञान में हैं। आज मैं विरोधियों की दृष्टि से भी देख सकता हूँ। मेरा अनेकान्तवाद सत्य, और अहिंसा-इन युगल सिद्धान्तों का ही परिणाम है।"
सत्य के किसी एक पक्ष पर अड़ जाना तथा वाद-विवाद में आँखें लाल करके बोलने लगना, ये लक्षण छोटे लोगों के ही होते हैं, जो कदाचित् सत्य की राह पर अभी आए ही नहीं हैं। सत्य के मार्ग पर आया हुआ मनुष्य हठी नहीं होता, बल्कि स्याद्वादी होता है। जबतक विश्व के विचारक और शासक स्यादवादी भाषा का प्रयोग नहीं सीखते, तबतक न तो संसार के धर्मों में एकता होगी, न विश्व के विचार और मतवादी ही एक हो पाएँगे।
-श्री रामधारीसिंह 'दिनकर'
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