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________________ ३८ श्रमण संस्कृति : सिद्धान्त और साधना प्रचलित व्यामोह के ऐकान्तिक आग्रह को हमें क्षीण करना होगा, तभी हम मानव की आन्तरिक वृत्ति से सम्बन्धित अहिंसा के वास्तंविक रूप को समझ सकेंगे । निर्भयता : अहिंसा का प्रथम सोपान : कई बार, अहिंसा के विषय में मर्मोदघाटन करते हुए, लोगों के मुँह से यह सुनता हूँ कि - किसी को कष्ट मत दो, किसी के प्राणों का वध मत करो, किसी को रुलाओ मत । यदि तुम दूसरों को कष्ट दोगे, तो तुम्हें भी कष्ट भोगने पड़ेंगे । यदि किसी को मारोगे तो तुम्हें भी मरना पड़ेगा। किसी को रुलाओगे, तो तुम्हें भी रोना पड़ेगा । इस प्रकार अपने दुःखों की विभीषिका व्यक्ति को भयभीत कर देती है और इसी चिंतनधारा में व्यक्ति दूसरों को परिताप पहुँचाने से अपने आपको बचाने का प्रयत्न करने लगता है । इस भयपरक उपदेश ने मनुष्य के मन में एक प्रकार से भय की भावना उत्पन्न करदी, जो अपने आप में स्वयं एक हिंसा है । उसकी जगह होना यह चाहिए कि व्यक्ति जब किसी को किसी भी प्रकार का कष्ट न पहुँचाना चाहे तो उसके विचारने के मूल में सहानुभूति की भावना रमे । जिस प्रकार हम दुःख सहन करना नहीं चाहते, किसी प्रकार का कष्टभोग अपने लिए नहीं चाहते, विश्व के अन्य सभी प्राणी भी इसी प्रकार दुःखों से मुक्ति चाहते हैं, कष्टों से दूर रहना चाहते हैं | अहिंसा के सम्बन्ध में सोचने की दिशा जब यह होती है, तब कहीं मानव-मन में विशुद्धरूप से अहिंसा का शाश्वत स्वर फूट सकता है, अन्यथा नहीं । भय पर निर्भयता एवं सहानुभूति की विजय ही अहिंसा का प्रथम सोपान है । भय की उक्त स्थिति में तो प्रवृत्ति और निवृत्ति के स्थूल स्तर पर अहिंसा प्रकाशमान होती दिखने लगती है, और हम इतने भर से संतोष कर लेते हैं; परन्तु अन्य किसी प्रसंगविशेष पर जब यह समझाया जाता है कि अपने दुश्मनों को समाप्त कर दो, साम्राज्य मिलेगा; यज्ञ में देवताओं के लिए पशुओं को समर्पित कर दो, स्वर्ग एवं सुख-सम्पदा मिलेगी; संघर्षरत प्रतिद्वन्द्वियों को परास्त कर दो, तुम्हें सम्मान मिलेगा ; इतिहास इसका साक्षी है कि इस प्रकार के प्रलोभनों से प्रभावित होकर न जाने कितने क्रूर एवं भयानक कारनामे मानव जाति ने किए हैं । किन्तु सोचने की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003192
Book TitleShraman Sanskruti Siddhant aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalakumar
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1971
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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