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श्रमण संस्कृति का अहिंसा दर्शन एवं विश्वधर्म-समन्वय बात है कि यह सब क्यों हुआ ? किस कारण हुआ ? स्पष्ट है, पहले की अहिंसा के मूल में भय की भावना भरी हुई थी, जिसने हिंसा को दबाए रखा, किन्तु ज्याही भय के स्थान पर प्रलोभन आ खड़ा हुआ कि व्यक्ति गड़बड़ा गया । प्रलोभन ने हिसा-भावना को फिर से उत्तजित कर दिया। प्रलोभन हिंसा को इसी कारण उत्तेजित कर सका कि हमने अन्तर्मन में वृत्ति की हिंसा को छोड़ने के लिए उचित ध्यान नहीं दिया। यदि वृत्ति की अहिंसा जाग जाती है, तो दुनिया का कोई भी भय या प्रलोभन हिंसा को जन्म नहीं दे सकता। जो अहिंसा केवल स्थल प्रवृत्ति-निवृत्ति में है, विधि-निषेध में है, साधारणसा विरोघा वातावरण एवं कारण भी उसे समाप्त कर देता है। उसका मूल जन-जीवन में स्थायी नहीं होता।
वृत्ति की अहिंसा का अर्थ है-जीवन को गहराई में अहिंसा की भावधारा का सतत प्रवाहित होना। जो अन्दर को वृत्ति से अहिंसक है, वह किसी को मार नहीं सकता । किसी को कष्ट नहीं दे सकता । किसी के प्राणों का वध नहीं कर सकता। अन्तर् से स्वतःस्फूर्त अहिंसा के मल में किसी भय अथवा प्रलोभन की भावना नहीं होती। ऐसा होने से हिंसा की मूल वृत्ति ही निर्मूल हो जाती है। यह अहिंसा मरणोत्तर स्वर्ग के लिए, वर्तमान की भौतिक सुख-सम्पदा के लिए अथवा प्रतिष्ठा के लिए नहीं होती। वृत्ति के अहिंसक की स्वयं ही यह सहज अवस्था हो जाती है कि वह हिंसा कर ही नहीं सकता, चाहे उसके लिए प्राप्त प्रतिष्ठा ही क्यों न खोनी पड़े, जीवन को दाँव पर ही क्यों न लगा देना पड़े। उसके लिए अहिंसा स्वाभाविक हो जाती है। मुझे शत्रु से भी प्रेम करना चाहिए-यह सिद्धान्त उसका नहीं होता, बल्कि दुनिया में उसका कोई शत्र ही नहीं होता। यह है वृत्ति को अहिंसा, जो अहिंसा का शाश्वत और सर्वव्यापी रूप है। अहिंसा का अन्तर्ह दय :
अहिंसा जीवन का महान वरदान है। मानव यदि मानव है, तो वह सर्वप्रथम एक करुणामूर्ति प्राणी है, जिसके प्रथम हृदय है, फिर मस्तिष्क । जिस प्रकार मस्तिष्क तर्क की भूमि है, जोड़-तोड़ की स्थली है, उसी प्रकार हृदय श्रद्धा, प्रेम एवं करुणा का सुकोमल स्थल है।
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