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श्रमण संस्कृति : सिद्धान्त और साधना संस्कृति का संरक्षण-सवर्द्धन एवं पोषण किया। इस समय मुनि विद्यानन्द, आचार्य तुलसी एवं राष्ट्रसंत उपाध्याय अमर मुनि जैसे महान् तपस्वीत्रय इस संस्कृति के प्रसार में अतुलनीय योगदान दे रहे हैं । बौद्ध भिक्षुओं ने भी इस संस्कृति के संदेश को राजमहलों से लेकर झोंपड़ियों तक पहुँचाया है ।
छठी शताब्दी के प्रथम चरण तक तो श्रमण संस्कृति और जैन संस्कृति - दोनों एक ही समझी जाती थी, परन्तु भगवान् बुद्ध के कारण इसकी एक धारा बौद्ध धर्म के रूप में प्रवाहित हो चली और कालान्तर में जैन तथा बौद्ध -दोनों के लिए ही श्रमण संस्कृति शब्द व्यवहृत होने लगा। इसका प्रमुख कारण यह था कि भगवान महावीर और भगवान् बुद्ध-दोनों समकालीन थे और दोनों की विचारधाराओं में बहुत अंशों में समानता थी। मूनि कान्तिसागर के शब्दों में--"दोनों ही परम्पराएँ वेदविरोधी थीं। मानव संस्कृति के विकास में अवरोधक वर्ण-व्यवस्था जैसी प्रथा इन दोनों को अभीष्ट न थी। वे गुणाश्रित उच्चत्व-निम्नत्व में विश्वास करते थे, जात्याश्रित में नहीं। बौद्ध और जैन श्रमणों ने जनता में अपने सांस्कृतिक तत्त्वों का प्रचार कर जातिवाद के विरुद्ध समाज का नवनिर्माण किया।"
मगधपति श्रेणिक बिम्बिसार और अभयकुमार ने बेबिलोन तक श्रमण संस्कृति का प्रभाव स्थापित किया। मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त तथा आचार्य भद्रबाहु ने दक्षिण भारत में श्रमण संस्कृति का प्रचार एवं प्रसार किया। अशोक ने लंका, तिब्बत, चीन, जापान, ब्रह्मा आदि देशों में बौद्ध धर्म के प्रचारार्थ अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया। उसने बौद्ध-धर्म की एक महती सभा का आयोजन किया, जिसमें अनेकों विद्वानों ने भाग लिया। इतना ही नहीं, अशोक ने बौद्ध-धर्म के सिद्धान्तों को शिला स्तम्भों पर अंकित कराया। सम्राट सम्प्रति ने विदेशों तक में जैनधर्म का प्रचार कराया और अनेकों जैन मंदिर तथा मतियों का निर्माण कराया। मिश्र में पाई जाने वाली सिमानिया जाति उस युग में लोकप्रचलित श्रमण संस्कृति का आज भी स्मरण दिलाती है। __शुंगकाल में वैदिक संस्कृति के बढ़ते हुए प्रभाव के कारण श्रमण संस्कृति का विकास कुछ मन्द हो गया। परन्तु कनिष्क और हर्ष
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