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________________ श्रमण संस्कृति का विकास एवं विस्तार जैसे प्रतापी सम्राटों ने बौद्ध धर्म का प्रवल प्रचार किया। इसी प्रकार अमोघवर्ष, कुमारपाल तथा अन्य अनेक राजपूत राजाओं के संरक्षण में जैन धर्म ने भी पर्याप्त उन्नति को। सम्पूर्ण भारत में निर्मित जैन मन्दिर तथा उत्खनन कार्य में उपलब्ध जैन और बुद्ध मूर्तियाँ इस बात की प्रतीक हैं कि एक समय ऐसा था जबकि सम्पूर्ण देश में श्रमण संस्कृति का ही बोलबाला था। मथुरा, उदयगिरि, खण्डगिरि, सारनाथ, पटना, वैशाली, प्रयाग आदि स्थानों से उपलब्ध मूर्तियाँ, चौकोर आयाग पट्ट, वेदिका, तोरण, स्तम्भ, द्वारस्तम्भ, गुफाएँ तथा अजन्ता, बाघ, बादामी, एलोरा आदि की चित्रकला एवम् भगवान गोमटेश्वर, अभयमुद्रा में भगवान् बुद्ध की मूर्ति, सारनाथ, लौरिया एवं वैशाली के अशोक स्तम्भ, शत्रुजय तथा आबू के जैन मदिर, स्तूप आदि समस्त बातें श्रमण-संस्कृति की स्वणिम गौरवगाथा का गान कर रही हैं। __ श्रमण-संस्कृति का क्रमवद्ध इतिहास ही लोक-जीवन का ज्वलंत इतिहास है । समय-समय पर त्यागी श्रमण अपने त्याग, संयम और समत्व की प्रबल भावना के द्वारा राजमहलों से लगाकर झोपड़ियों तक व्यक्तिमूलक स्वतन्त्रता का सन्देश सुनाते रहे । जहाँ समता का निवास है, वहाँ विश्वप्रेम स्वतः ही उत्पन्न हो जाता है । भगवान् बुद्ध अपने शिष्यों से कहते हैं "चरथ भिक्खवे चारिकं बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय, लोकानकम्पाय, अत्थाय हिताय देवमनुस्सानं।" हे भिक्षुओ ! ऐसी जीवन-चर्या अपनाओ जिससे बहुत लोगों का हित हो, बहुत लोगों को सुख प्राप्त हो । लोक की अनुकम्पा के लिए देव और मनुष्यों के उपकार तथा हित को अपना जीवनवृत्त बनाओ। "देसेथ भिक्खवे कल्लाणं, आदिकल्लाणं, मझे कल्लाणं, परियोसान कल्लाणं, केवलं परिपुण्णं, ब्रह्मचर्य पकासेथ ।" हे भिक्षुओ ! ऐसा उपदेश दो जो आदि में कल्याणकारी हो, मध्य में कल्याणकारी हो और अन्त में कल्याणकारी हो । पूर्ण ब्रह्मचर्य का प्रकाश फैलाओ। ___ इतना ही नहीं, भगवान् बुद्ध संसार को मैत्री और करुणा से भर देना चाहते थे। उन्होंने कहा है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003192
Book TitleShraman Sanskruti Siddhant aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalakumar
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1971
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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