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________________ श्रमण संस्कृति का विकास एवं विस्तार उच्छेद करना तथा सदवृत्तियों का विकास करना। इस शब्द में सभी प्रकार के पापों से विरक्ति का सदेश निहित है। श्रमण संस्कृति का इतिवृत्त : प्राचीन साहित्य के अनुसार भोगभूमि के पश्चात् कम-मूलक संस्कृति का उदय हआ। इस संस्कृति को प्रतिष्ठा का श्रेय भगवान ऋषभदेव को है। ये ऋषभ ही जैन धर्म अर्थात श्रमण संस्कृति के प्रवर्तक थे। इन्होंने ही सर्वप्रथम असि (युद्ध विद्या) मसि (लेखन कला), कृषि(वाणिज्य,सेवा तथा शिल्प की) शिक्षा का प्रचलन किया। ब्राह्मी लिपि के आविष्कार का श्रेय भी इन्हीं को है। इन्होने धामिक, राजनीतिक, सामाजिक तथा आर्थिक व्यवस्था की ओर भी ध्यान दिया। क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र - इन तीन वर्गों की स्थापना भी इन्होंने ही की। इन्हीं के पुत्र भरत के नाम पर इस देश का नाम भारत पड़ा । भरत ने ज्ञान और चरित्र को प्रधानता देने हेतु ब्राह्मण वर्ण की स्थापना की। भागवत में भी ऋषभदेव का एक महान तपस्वी एवं आराध्य के रूप में उल्लेख मिलता है। ऋषभदेव के पश्चात् तीर्थंकरों ने श्रमण संस्कृति की धारा को आगे बढ़ाया। भगवान् नेमिनाथ इस संस्कृति के ऐसे प्रकाश स्तम्भ थे, जिन्होंने अहिसामूलक संस्कृति के प्रकाश से जनमानस को आलोकित किया । भगवान् पार्श्वनाथ ने अपनी महान् सांस्कृतिक साधना के आधार पर इस बात पर विशेष बल दिया कि अहिंसा ही संस्कृति की आत्मा है । हिंसामूलक संस्कृति, सं कृति नहीं, वरन् विकृति है। समन्वय की भावना ही संस्कृति का बल है, जीवन है और इसी में शताब्दियोंपर्यंत प्रवाहित रहने की अतुलनीय शक्ति है । भगवान् महावीर ने अहिंसा, अपरिग्रहवाद, कर्मवाद, स्याद्वाद तथा समतावाद की जिस पावन धारा को तुमुल वेग से प्रवाहित किया, उसमें निमज्जित होकर युग-युग तक मानव स्थायी सुख-शान्ति एवं अमरत्व को प्राप्त करता रहेगा। भगवान् महावीर के पश्चात् आचार्य भद्रबाहु, कुन्दकुन्दाचार्य, स्थूलभद्राचाय, उमास्वाति, समन्तभद्र, अकलंक देव, लोकाशाह, हीर विजय सूरि, आत्मानन्द, विजयवल्लभ सूरि आदि ने इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003192
Book TitleShraman Sanskruti Siddhant aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalakumar
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1971
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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