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________________ श्रमण संस्कृति : सिद्धान्त और साधना हो परिश्रम से कर सकता है। सूख-दुःख तथा उत्थान-पतन के लिए वह स्वयं ही उत्तरदायी है। जो जैसा कम करता है, उसे उसका तदनुसार फल भोगना पड़ता है। कोई ईश्वर या अन्य बाह्य शक्ति इस कारण-कार्य नियम में हस्तक्षेप नहीं कर सकती। (२) 'समन' इस शब्द का अर्थ है-समता अर्थात् सभी को आत्मवत् समझना। प्रवचनसार में समन की व्याख्या निम्न प्रकार की गई है "समसत्त बन्धु वग्गो सम सुहदुक्खो पसंसरिंगदसमो। समलोठ्ठकच णो पुरण जोविद मरणे समो समरणो॥" अर्थात् शत्रु और बन्धु. सुख और दुःख, प्रशंसा और निन्दा, मिट्टो और साना तथा जीवन और मरण में समन सम बुद्धि होता है । "जह मम न पियं दुक्ख जाणिय एमेव सव्व जोवाणं । न हगइ न हरणावाइ य समणमइ तेण सो समरणो ॥" अर्थात् जिस प्रकार मुझे दुःख अच्छा नहीं लगता, उसी प्रकार सभी जीवों को समझना चाहिए। यह समझकर जो न स्वयं हिंसा करता है और न किसी अन्य से करवाता है; अर्थात् जो समस्त प्राणियों में समबुद्धि रखता है, वह समण है । "सो समरणो जइ सुमणो भावेण जइ रण होइ पावमरणो। सयणे अ जणे य समो समो अ माणावमाणेसु ॥" अर्थात् जिसका हृदय सदैव प्रफुल्लित रहता है, जो कभी भी पापचिन्ता नहीं करता। जो स्वजन और अन्य जन, तथा मान और अपमान में बुद्धि का संतुलन रखता है, वह समण है। "इह लोगणिरावेबखो अप्पडिबद्धो परम्मि लोयम्हि । - जुत्ताहारविहारो रहियकसाओ हवे समरणो॥" अर्थात् समण इहलौकिक विषय-तृष्णा से विरत और पारलौकिक विषयाकांक्षाओं से रहित होता है। उसका आहार-विहार संतुलित होता है । वह विषय-वासनाओं से मुक्त होता है ।। (३) शमन-इस शब्द का अर्थ है-दमन करना अर्थात् मन, वचन और काय पर नियंत्रण रख कर दुर्वृत्तियों और तृष्णा का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003192
Book TitleShraman Sanskruti Siddhant aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalakumar
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1971
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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