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श्रमण संस्कृति का धरातल और उसकी परम्परा
पालि साहित्य में श्रमणों के चार प्रकार बताये गये हैं-मग्गजिन, मग्गदेसिन, मग्गजीविन और मग्गदूसिन । ३ इनमें पारस्परिक मतभेद उत्पन्न होने के फलस्वरूप अनेक दार्शनिक सम्प्रदाय उठ खड़े हुए, जिन्हें बुद्ध ने 'दिट्टि' को सज्ञा दी। इन सभी विवादों का संकलन वासठ प्रकार को मिथ्यादृष्टियों (मिच्छादिट्रि) में किया गया है । जैन साहित्य में इन्हीं दृष्टियों को विस्तार से ३६३ श्रेणियों में विभक्त कर समझाने का प्रयत्न किया गया है।" ठाणांग में श्रमणों के पाँच भेद निर्दिष्ट हैं निगण्ठ (जैन), सक्क (बौद्ध), तावस, गेरुय और परिब्बाजक ।६ सुत्तनिपात में इनके तीन भेद मिलते हैं-तित्थिय, आजीविक और निगण्ठ । इन्हें वादसील कहा गया है। वर्तमान में इन भेदों में जैन और बौद्ध-ये दो परम्पराएँ जीवित अवस्था में मिलती हैं।
भगवान् महावीर (पालि-निगण्ठ नात्युत्त) के समकालीन पूरणकस्सप, मक्खलिगोसाल, अजितकेस कम्बलि, पकुधकच्चायन, संजयबेलट्ठिपुत्त और महात्मा बुद्ध रहे हैं। त्रिपिटक में इन सभी आचार्यों को “सड़धी चेव गणी च, गणाचारियो च, यातो, यसस्सी, तित्थकरो साधुसम्मतो बहुजनस्स, रत्तन , चिर पब्बजितो, अद्धगतो वयोनुपत्तो" कहा गया है। इनमें अधिकांश आचार्य श्रमण परम्परा से सम्बद्ध हैं।
श्रमण परम्परा और नहीं तो ऋषभदेव कालीन तो अवश्य है। उनके बाद शेष २३ तीथंकर और हए, जिन्होंने इस परम्परा के विकास में अपना योगदान दिया था। इन तीर्थङ्करों में विशेष रूप से पार्श्वनाथ परम्परा के उल्लेख पालि त्रिपिटक में उपलब्ध होते हैं । वहाँ सामञफलसुत्त में पार्श्वनाथ के चातुर्यामसंवर का उल्लेख अवश्य है, पर वह यथावत् नहीं हो पाया। अंगुत्तरनिकाय (भा० ३,
३. सुत्तनिपात, ८२८ ४. वही, ५४, १५१ आवि ५. सूय गडंग १, १, ११ ६. ठाणांग पृ०-६५६ ७. सुत्तनिपात, ३८१
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