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________________ १४ श्रमण संस्कृति : सिद्धान्त और साधना नहीं होता, बल्कि उसकी श्रेष्ठता तो उसके उत्तम कर्म, विद्या, धर्म और शील से है। आत्मा अथवा चित्त स्वरूपतः निर्मल और निर्विकार है। हमारे कर्म उसके मूल स्वरूप को आवृत कर लेते हैं । आत्मा के इस विकार-भाव को दूर करने के लिए शुद्धभावपूर्वक अहिंसात्मक साधना अपेक्षित है। इस प्रकार समानता और अहिंसा श्रमण संस्कृति की मूलभूत विशेषताएँ हैं । यही उसका धरातल है । श्रमण संस्कृति का उद्भव और उसको प्राचीनता के सन्दर्भ में यहाँ अधिक कहने की आवश्यकता नहीं। परन्तु इतना निश्चित है कि श्रमण संस्कृति वैदिक संस्कृति से बाद की सस्कृति नहीं है। सिन्धु घाटी के उत्खनन में प्राप्त कुछ यौगिक मुद्राएँ, वैदिक साहित्य के व्रात्य, वात रशना, श्रमण और दिगम्बर गुनिगण, वेदों और पुराणों के ऋषभदेव तथा पालि साहित्य में प्राप्त लगभग चौबीसों जैन तीर्थकरों के नामोल्लेख यह कहने को बाध्य करते हैं कि श्रमण संस्कृति वैदिक संस्कृति की अपेक्षा प्राचीनतर है। चूंकि वैदिक साहित्य के समकक्ष प्राचीन श्रमणसाहित्य उपलब्ध नहीं है, इसलिए भले ही हम उसे प्राचीनतर न मानें, पर समकालीन तो अवश्य ही मानना पड़ेगा। व्यक्ति अथवा समुदाय की विशेष रूप से तीन प्रकार की प्रवृत्तियाँ होती हैं, (१) भौतिकवादी प्रवृत्ति, (२) समानता और पुरुषार्थवादी प्रवृत्ति, तथा (३) किसी ईश्वर विशेष को सर्वसत्तावान् मानकर स्वयं को उसका दास मानने की प्रवृत्ति । प्रथम प्रवृत्ति का प्रतिनिधित्व चार्वाकदर्शन करता है, द्वितीय का श्रमण दर्शन और तृतीय प्रवृत्ति का परिचय वैदिक दर्शन से मिलता है । अतएव ये दोनों संस्कृतियाँ, जो अपने आपमें स्वतन्त्र और मौलिक हैं, समकालीन थीं। क्षत्रिय विरोध आदि जैसे तर्क श्रमग संस्कृति के उद्भावक नहीं माने जा सकते। यह अधिक सम्भव है कि किसी कारणवश श्रमण संस्कृति का कुछ ह्रास हो गया हो और अपनी मूल स्थिति में पहंचने के लिए वैदिक संस्कृति में समागत जातिवाद आदि जैसे कठोर, कटु और विषाक्त दोषों का आश्रय लेकर क्षत्रिय वर्ग उसके विरोध में उठ खड़ा हुआ हो । २. देखिए, लेखक का प्रबन्ध-जैनिज्म इन बुद्धिस्ट लिटरेचर, प्रथम अध्याय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003192
Book TitleShraman Sanskruti Siddhant aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalakumar
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1971
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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