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श्रमण संस्कृति का धरातल
और उसकी परम्परा
भारतीय संस्कृति मूलतः दो संस्कृतियों का समन्वित रूप है-एक वैदिक संस्कृति और दूसरी श्रमण संस्कृति । वैदिक संस्कृति ब्रह्मन् की पृष्ठभूमि से उद्भूत हुई है, जबकि श्रमण संस्कृति सम शब्द के विविध रूपों अथवा अर्थों पर आधारित है। प्रथम में परतन्त्रता, ईश्वरावलम्बन और क्रियाकाण्ड की प्रवृत्ति देखी जाती है, जबकि द्वितीय स्वातन्त्र्य, स्वावलम्बन और आत्मा की सर्वोच्च शक्ति पर विश्वास करती है।
श्रमण शब्द श्रम धातु से निष्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ है -उद्योग करना, परिश्रम करना । पालि-प्राकृत भाषा में इसी शब्द को समण कहा है, जो सम (शान्ति और समानता तथा स्वयं का श्रम) धातु से निर्मित है। अतः श्रमण संस्कृति उक्त श्रम, शम, और श्रम के मूल सिद्धान्तों के धरातल पर अवलम्बित है। इसमें तथाकथित ईश्वर मार्गद्रष्टा है, सृष्टि का कर्ता-धर्ता-हर्ता नहीं । अतः उसके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति अपने श्रम व सत्कर्मों से स्वयं ईश्वर बन सकता है। वह ईश्वर के प्रसाद पर निर्भर नहीं है, बल्कि उसका स्वयं का पुरुषार्थ उसे चरम स्थिति तक पहुँचा देता है। उसकी मूल साधना है-आत्मचिन्तन अथवा भेदविज्ञान । चाहे ब्राह्मण हो या क्षत्रिय, वैश्य हो या शूद्र-सभी को एक रूप से आत्मचिन्तन करने एवं मुक्ति प्राप्त करने का समान अधिकार है। कोई भी व्यक्ति मात्र गोत्र अथवा धन से श्रेष्ठ
१. उत्तराध्ययन ; तथा
कम्मं विज्जा च धम्मो च सीलं जीवितमुत्तमं । एतेन मच्चा सुज्झन्ति न गोत्तन धनेन वा ॥ -विसुद्धिमग्ग, १
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