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________________ श्रमण संस्कृति : सिद्धान्त और साधना साथ ही असुरों के साथ जो युद्ध छिड़ा, वह कुछ ही दिनों में समाप्त नहीं हो गया, अपितु वह संघर्ष ३०० वर्ष तक चलता रहा। आर्यों का इन्द्र पहले बहुत शक्तिसम्पन्न नहीं था। एतदर्थ प्रारम्भ में आर्य लोग पराजित होते रहे। महाभारत के अनुसार असुर राजाओं की एक लम्बी परम्परा रही है। और वे सभी राजागण-व्रतपरायण, बहुश्रुत लोकेश्वर थे। पद्मपुराण के अनुसार असुर लोग जैन धर्म स्वीकार करने के पश्चात् नर्मदा के तट पर निवास करने लगे। ऊपर के संक्षिप्त विवरण से हम इस निष्कष पर पहुँचते हैं कि श्रमण संस्कृति भारतवर्ष की एक महान् संस्कृति है, जो प्रागैतिहासिक काल से ही भारत के विविध अंचलों में फलती और फूलती रही है। यह संस्कृति वैदिक संस्कृति की धारा नहीं है, अपितु एक स्वतंत्र संस्कृति है। इस संस्कृति की विचारधारा वैदिक संस्कृति की विचारधारा से पृथक् है । वैदिक संस्कृति प्रवृत्तिप्रधान है, और श्रमण संस्कृति निवृत्ति प्रधान । वैदिक संस्कृति विस्तारवादी है, और श्रमण संस्कृति सम, श्रम और सम प्रधान है। वैदिक संस्कृति का प्रतिनिधि ब्राह्मण है, और श्रमण संस्कृति का प्रतिनिधि श्रमण है । जो शान्ति, तपस्या व समत्वयोग की साधना करता है, वह श्रमण है। श्रमण संस्कृति ने आत्मा की शाश्वत मुक्ति पर बल दिया है। दूसरी बात यह है कि जैन संस्कृति, बौद्ध संस्कृति की शाखा नहीं है, बल्कि स्पष्टतः बौद्ध संस्कृति जैन संस्कृति से मिलती-जुलती एक पृथक संस्कृति है । हाँ, च कि यह भी समतावादी संस्कृति है, अतः यह निर्विवाद रूप से श्रमण संस्कृति की एक शाखा है। त्रिपिटक साहित्य का परिशीलन करने पर स्पष्ट हो जाता है कि तथागत बुद्ध ने अनेक स्थलों पर श्रमण भगवान् महावीर को निग्गंथ नाथपुत्त आदि के नाम से सम्बोधित किया है। तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ के आचार-विचार की छाप बुद्ध के जीवन पर और उनके धर्म पर स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है। जैन संस्कृति की पारिभाषिक शब्दावली ही नहीं, कथा और कहानियाँ भी बौद्ध साहित्य में ज्यों की त्यों मिलती हैं। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि जैन संस्कृति, जिसे श्रमण संस्कृति कहा गया है, भारत की एक अति प्राचीन संस्कृति है।* -श्रीदेवेन्द्र मुनि, शास्त्री, साहित्यरत्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003192
Book TitleShraman Sanskruti Siddhant aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalakumar
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1971
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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