SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 29
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६ श्रमण संस्कृति : सिद्धान्त और साधना पृ० २७६-७७ ) के उल्लेख से यह चातुर्यामसंवर बहुत कुछ स्पष्ट हो जाता है । ठाणाङ्ग (सूत्र २६६ ) आदि जैनागमों से भी इसका समर्थन स्पष्ट रूप से हो जाता है । अतः श्रमण-साधना में जैनसाधना, बौद्ध साधना से पूर्वतर सिद्ध हो जाती है । भगवान् पार्श्वनाथ और महावीर के बीच लगभग २५० वर्ष का अन्तर था । इस बीच जैन संघ में आचार - शैथिल्य घर कर गया । महावीर ने इसके मूल कारण पर गम्भीरतापूर्वक विचार किया और अपरिग्रह में मूलतः गर्भित ब्रह्मचर्य व्रत को पृथक रूप देकर चातुर्याम के स्थान पर पञ्चयाम अथवा पञ्च महाव्रतों की स्थापना की । पालि त्रिपिटक और जैनागम इसके स्पष्ट प्रमाण हैं । जैन धर्म की तत्कालीन स्थिति का परिचय भी इन उद्धरणों से प्राप्त हो जाता है । उक्त छः शास्ताओं के अतिरिक्त, कुछ छोटे-मोटे शास्ता और भी थे, जो अपने मतों का प्रवर्तन और प्रचार समाज में कर रहे थे । ब्रह्मजालसुत्त के बासठ दार्शनिक मत इस प्रसंग में उल्लेखनीय हैं । इन्हें भी गंभीर, दुर्बोध आदि कहा गया है । ये मत इस प्रकार हैं१. पुब्वन्तानुदिट्ठि अट्ठारसहि वत्थूहि (i) सस्सतवाद (ii) एकच्च सस्सतवाद (iii) अनन्तानन्तवाद (iv) अमराविक्सेपवाद (v) अधिच्च समुप्पन्नवाद २. अपरन्तानुदिट्ठि चतुचत्तारीसाय वत्थूहि (i) उद्धमाघातनिका सञ्त्रीवादा (ii) उद्धमाघातनिका असञ्ञीवादा (iii) उद्धमाघातनिका नेवसञ्जी - नासत्रीवादा (iv) उच्छेदवाद (v) दिट्ठधम्मनिब्बानवाद ४ Jain Education International |१८ IS For Private & Personal Use Only IS सूत्र कृताङ्ग में दार्शनिक मत-मतान्तरों की संख्या ३६३ की गई है । इनके अतिरिक्त यज्ञ, भूत, प्रेत, पशु आदि की भी पूजा की जाती थी । ४४+१८ ६२ www.jainelibrary.org
SR No.003192
Book TitleShraman Sanskruti Siddhant aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalakumar
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1971
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy