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________________ भा. भाषा एवं साहित्य में श्रमण संस्कृति के स्वर २११ जैसा कि अपभ्रंश भाषा और साहित्य शीर्षक की विवेच्य वस्तु के अन्तर्गत हमने देखा है कि अपभ्रंश भाषा में अधिकांश रचनाएँ जैन साहित्यकारों की ही हैं । और, अपभ्रंश का हिन्दी पर स्पष्ट प्रभाव होने के कारण हिन्दी साहित्य में भी जैन साहित्यकारों की रचनाएँ प्रचुर परिमाण में हुई हैं । एक तरह से हिन्दी साहित्य की आधारशिला के न्यासकर्त्ता जैन साहित्यकार ही हैं । डा० रामकुमार वर्मा ने भी इस तथ्य को स्वीकार करते हुए कहा है- 'वास्तव में हिन्दी साहित्य की उत्पत्ति और विकास में जैन धर्म का बहुत बड़ा हाथ रहा है । अपभ्रंश में ही जैनियों के मूल सिद्धान्तों की रचना हुई। अपभ्रंश का विकास हिन्दी में होने के कारण हिन्दी की प्रथमावस्था में भी इन सिद्धान्तों पर रचनाएँ हुई । अतएव भाषाविज्ञान की दृष्टि से ही नहीं, वरन् हिन्दी के प्रारंभिक रूप का सूत्रपात करने में भी जैन साहित्य का महत्त्व है । '१८ हाँ, इतना अवश्य है कि जैन साहित्यकारों का वर्ण्य विषय जैनधर्म के सिद्धान्तों का निरूपण, उसकी व्याख्या - विवेचन करना ही रहा है, अतः अन्य पहलुओं पर कोई विशिष्ट रचना जैन साहित्यकारों ने प्रारंभिक युग में नहीं की । जैन धर्म का सर्वमान्य प्रतिपाद्य निम्न है : जैनधर्म रत्नत्रयी सम्यक् दर्शन सम्यक् ज्ञान सम्यक चारित्र उपर्युक्त सारिणी से स्पष्ट है कि जैनधर्म में रत्नत्रयी की साधना द्वारा जो कि विविध सोपानों से होती हुई मोक्ष पर पहुँचती है, मोक्ष प्राप्ति को ही परमलक्ष्य के रूप में स्वीकारा गया है । यह मोक्ष प्राप्ति का लक्ष्य अन्य धर्मों में भी समान रूप से पाया जाता है, किन्तु जैन धर्म में जितनी बड़ी निर्वेद (शांत) साधना का प्राविधान है, वह बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है । जैन धर्म में साहित्य की जितनी १८. हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, पृ० १०२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003192
Book TitleShraman Sanskruti Siddhant aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalakumar
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1971
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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