________________
भा. भाषा एवं साहित्य में श्रमण संस्कृति के स्वर २०६ प्रवृत्तियाँ अपभ्रश साहित्य से ही परम्परागत रूप से हिन्दी साहित्य को प्राप्त हुई हैं । १५
अपभ्रश साहित्य पर दृष्टिपात करने से पता चलता है कि इसका विकास ईसा की छठी शताब्दी से आरम्भ हो गया था । लगभग १००० वर्षों तक अपभ्रश साहित्य भारत भूमि पर पल्लवितपुष्पित एवं फलित होता रहा। अपभ्रश का पूरा साहित्य काव्य में प्रणीत हआ है। काव्य में प्रबन्ध और मुक्तक दोनों में ही रचनाएँ हुई हैं। खंडकाव्य में 'संदेशरासक' एक ही ग्रंथ उपलब्ध है । प्रबन्ध काव्य में प्रकाशित ग्रन्थ-पउम चरिउ, रिठ्ठनेमिचरिउ, महापुराण, णायकुमार चरिउ, जसहर चरिउ, भविसयत्तकहा, करकंड चरिउ, णमिणाह चरिउ, पउमसिरि चरिउ, सुदंसण चरिउ, सुलोयणा चरिउ, पास चरिउ, पज्जुण्ण चरिउ एवं सणंकुमार चरिउ हैं। कुछ अप्रकाशित प्रबन्ध काव्य भी प्राप्य हैं. यथा हरिवंश पुराणु, पांडपुराण, पद्मपुराण, सुकोसल चरिउ, मेघेश्वर चरिउ आदि । १६ मुक्तक काव्य में-रास, चर्चरी, कूलक, फाग, दोहा, नीति आदि रचनाएँ प्राप्त हैं । अपभ्रश काव्य के आरम्भिक विकास में महाकवि स्वयंभू का उल्लेखनीय स्थान है । महाकवि स्वयम्भू ने अपने ग्रंथ 'स्वयभू छन्द' तथा '
रिट्ठनेमि चरिउ' में गोविन्द, चतुर्मुख, महट्ट, सिद्धप्रभ प्रभृति अपभ्रंश कवियों का उल्लेख किया है। महाकवि स्वयंभू के अतिरिक्त उद्योतन सूरि (कुवलयमाला कहा), दामोदर (उक्ति व्यक्ति प्रकरण) तथा साधु समय सुन्दर गणी (उक्ति रत्नाकर) आदि का योगदान भी बड़ा महत्त्वपूर्ण है। इनके अतिरिक्त महाकवि पुष्पदन्त, श्री धनपाल, कवि धाहिल, मुनि कनकामर, हरिभद्र, वीर, नयंदी, पद्मकीर्ति, देवसेनगणी आदि का योगदान आदि स्मरणीय है ।
१३ वीं शताब्दी में अपभ्रश साहित्य का विकास बड़े व्यापक स्तर पर हुआ । इस काल में अपभ्रंश भाषा के अनेक प्रसिद्ध कवि हुए। जैसे, अम्बदेव सूरि (समरारास), जिनपद्मसूरि (स्थूलभद्रफाग), देल्हण (गयसुकुमालसार), धनपाल (भविसयत्तकहा), प्रज्ञातिलक (कछूलिरास), रत्नप्रभसूरि (अंतरंगसंधि), लाखू अथया लक्ष्मण १५. डा० देवेन्द्र कुमार जैन, संदेशरासक और हिन्दी काव्यधारा,
-सप्तसिंधु, अप्रैल ६० अंक १६. गुरुदेव श्री रत्नमुनि स्मृति मथ, पृष्ठ ३३१
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org