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श्रमण संस्कृति : सिद्धान्त और साधना
आचार्य हरिभद्र ने प्राकृत एवं संस्कृत भाषा में चार योग विषयक ग्रंथों की रचना की, संस्कृत में प्रणीत योगबिन्दु एवं योगदृष्टि समुच्चय बड़ी महत्त्वपूर्ण कृति है। आचार्य हरिभद्र के पश्चात् शुभचन्द्र का ज्ञानार्णव भी एक श्रेष्ठ प्रणयन है। आचार्य हेमचन्द्र का 'योगशास्त्र', उपाध्याय यशोविजय का अध्यात्मसार, अध्यात्मोपनिषद्, योगावतार वत्तीसो, पातंजल योगसूत्र वृत्ति, योगविशिका (टीका) आदि योग पर अभूतपूर्व उपलब्धियाँ हैं।
इस प्रकार जैनाचार्यों ने संस्कृत भाषा एवं साहित्य में विविध विषयक जो रचनाएं की हैं, वह साहित्य वाङमय की अनमोल निधि हैं। उपर्युक्त संक्षिप्त विवेचन से यह बात भी पूर्णतया स्पष्ट हो जाती है कि कतिपय लोगों की यह भ्रामक धारणा कि जैनाचार्यों ने मात्र धर्म एवं अध्यात्म के शुष्क विषयों का चवित चर्वण किया है, निराधार है । वस्तुतः जैनाचार्यों एवं जैन मनीषियों ने साहित्य एवं जीवन के प्रत्येक पहलुओं पर अपनी सधी हुई लेखनी चलाकर एक अमृतमय वरदान विश्व को प्रदान किया है ।
अपभ्रंश भाषा और साहित्य प्राकृत एवं संस्कृत की भांति अपभ्रंश में रचित जैन साहित्य का भी गौरवमय स्थान है। वस्तुतः संस्कृत और प्राकृत से कहीं ज्यादा जन सामान्योचित व्यवहारक्षम एवं मधुर भाषा अपभ्र श है। हिन्दी साहित्य का भक्ति और रीतिकालीन साहित्य अपभ्रश में ही बहुलांश में रचा गया । वस्तुतः अपभ्रश हिन्दी भाषा की जननी है। इसकी सर्वप्रथम विशेषता यह है कि इस भाषा में संदेशरासक तथा सिद्ध साहित्य ( नीति दोहा और बौद्धचर्या पद) को छोड़कर शेष साहित्य प्रायः जैन विद्वानों द्वारा रचे गये हैं । १४ साहित्यिक दृष्टि में भी अपभ्रंश का विशेष स्थान है। हिन्दी साहित्य की अनेक प्रवृत्तियाँ अपभ्रंश युग की देन हैं। छन्दों की विविधता, सुगम रचनाशैली, परम्परागत काव्यात्मक वर्णन, साहित्यिक रूढ़ियों का निर्वाह, प्रकृति चित्रण, रसात्मकता, भक्ति और शृगार का पुट आदि
१४. आचार्य विजयवल्लभ सूरि स्मारक नथ, पृष्ठ ३१
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