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श्रमण संस्कृति और उसकी प्राचीनता अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये जैनधर्म के उपदेश थे, हिन्दुत्व के नहीं।"
इस विवेचन का सार यह है कि प्राचीनकाल में व्रात्य शब्द का प्रयोग श्रमण संस्कृति के अनुयायी श्रमणों के लिए होता रहा है। अथर्ववेद के व्रात्य-काण्ड में रूपक की भाषा में भगवान् ऋषभदेव का जीवन उट्टङ्कित किया गया है। भगवान्ऋषभदेव के प्रति वैदिक ऋषि प्रारम्भ से ही निष्ठावान् रहे हैं । और उन्हें वे देवाधिदेव के रूप में मानते रहे हैं। वातरशनामुनि :
श्रीमद्भागवत पुराण में लिखा है कि स्वयं भगवान् विष्णु महाराजा नाभि का हित करने के लिए उनके रनवास में महारानी मरुदेवी के गर्भ में आये। उन्होंने वातरशना श्रमण ऋषियों के धर्म को प्रकट करने की इच्छा से यह अवतार ग्रहण किया।
ऋग्वेद में वातरशना मुनि का उल्लेख आया है। वे ऋचाएँ इस प्रकार हैं .
"मुनयो वातऽरशनाः पिशंगा वसते मला वातस्यानुघ्राजिम् यन्ति यद्देवासो अविक्षत । उन्मदिता मौनेयन वातांआ तस्थिमा वयम्
शरीरेदेस्माकं यूयं मासो अभिपश्यथ ॥" अर्थात् अतीन्द्रियार्थदर्शी वातरशना मुनि मल धारण करते हैं, जिससे पिंगल वर्ण वाले दिखाई देते हैं। जब वे वायु की गति को प्राणोपासना द्वारा धारण कर लेते हैं, अर्थात् रोक देते हैं, तब वे अपनी तप की महिमा से दीप्तिमान होकर देवतास्वरूप को प्राप्त हो जाते हैं। सावलौकिक व्यवहार को छोड़कर वे मौनेय की अनुभूति में कहते हैं-- "मुनिभाव से प्रमुदित होकर हम वायुभाव में स्थित हो गये। मयों ! तुम हमारा शरीर मात्र देखते हो।" रामायण की टीका में जिन वातवसन मुनियों का उल्लेख किया गया है, वे ऋग्वेद में वर्णित वातरशन मुनि ही ज्ञात होते हैं । उनके वर्णन उक्त वर्णन से मेल भी खाते हैं। केशी मुनि भी वातरशन की श्रेणी के ही थे।
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