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श्रमण संस्कृति : सिद्धान्त और साधना तैत्तिरीयारण्यक में भगवान ऋषभदेव के शिष्यों को वातरशन ऋषि और उर्ध्वमंथी कहा है।
वातरशना मुनि वैदिक परम्परा के नहीं थे, क्योंकि वैदिक परम्परा में संन्यास और मुनिपद को पहले स्थान नहीं था । श्रमण शब्द का उल्लेख तैत्तिरीयारण्यक और श्रीमद्भागवत के साथ ही वृहदारण्यक उपनिषद् और रामायण में भी मिलता है। इण्डो ग्रीक और इण्डोसीथियन के समय भी जैनधर्म श्रमण धर्म के नाम से प्रचलित था। मैगास्थनीज ने अपनी भारत यात्रा के समय दो प्रकार के मुख्य दार्शनिकों का उल्लेख किया है । १. श्रमण और २. ब्राह्मण । श्रमण और ब्राह्मण उस युग के मुख्य दार्शनिक थे। उस समय उन श्रमणों का बहुत आदर होता था। कार्ल ब्रक ने जैन सम्प्रदाय पर विचार करते हुए मैगास्थनीज द्वारा उल्लिखित श्रमण सम्बन्धी अनुच्छेद को उद्धत करते हए लिखा है--"श्रमण वन में रहते थे। और लोग देवता की भाँति उनकी पूजा और स्तुति करते थे।" केशी:
जम्बुद्वीप प्रज्ञप्ति के अनुसार भगवान् ऋषभदेव जब श्रमण बने, तो उन्होंने चार मूष्टि केशों का लोच किया था। सामान्य रूप से पाँच मुष्टि केशलोच करने की परम्परा है। भगवान् केशों का लोंच कर रहे थे। उस समय जब दोनों भागों के केशों का लोच करना अवशेष था, तभी देवलोक के इन्द्र शकेन्द्र ने भगवान् से निवेदन किया कि हे मुनिराज, इतनी सुन्दर केशराशि का लोच मत करो, उसे रहने दो। भगवान ने इन्द्र की प्रार्थना से उसको उसी प्रकार रहने दिया। यही कारण है कि केश रखने के कारण उनका एक नाम केशी या केशरियाजी हुआ । जैसे सिंह अपने केशों के कारण केशरी कहलाता है, वैसे ही भगवान ऋषभ केशी, केशरी और केशरिया नाम से विश्रत हैं। ऋग्वेद में भगवान् ऋषभ की स्तुति केशी रूप में की गई है। वातरशना मुनि प्रकरण में इस प्रकार का उल्लेख आया है, जिससे स्पष्ट है कि केशी ऋषभदेव ही थे। अन्यत्र ऋग्वेद में केशी और वृषभ का एक साथ उल्लेख भी प्राप्त होता है । जब मुद्गल ऋषि की गायें (इन्द्रियाँ) चुराई जा रही थीं, तब उस समय केशी के सारथी ऋषभ देव के वचन से वे अपने स्थान पर लौट आयीं । अर्थात् ऋषभ
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