SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 21
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रमण संस्कृति : सिद्धान्त और साधना. वात्यकाण्ड की भूमिका में आचार्य सायण ने लिखा है - इसमें व्रात्य की स्तुति की गई है । उपनयन आदि से होन मानव व्रात्य कहलाता है। ऐसे मानव को वैदिक कृत्यों के लिए अनधिकारी और सामान्यत: पतित माना जाता है । परन्तु काई व्रात्य ऐसा हो. जो विद्वान् और तपस्वी हो, वह सर्वपूज्य होगा और देवाधिदेव परमात्मा के तुल्य होगा । व्रात्य ने अपने पर्यटन में प्रजापति को भी प्रेरणा दी थी। और प्रजापति ने अपने में सुवर्ण आत्मा को देखा । ८ प्रश्न यह है कि वह व्रात्य कौन है, जिसने प्रजापति को प्रेरणा दी ? डाक्टर सम्पूर्णानन्द व्रात्य का अर्थ परमात्मा करते हैं । और बलदेव उपाध्याय भी उसी अर्थ को स्वीकार करते हैं । व्रात्यकाण्ड में जो वर्णन है, उस पर से लगत है वह परमात्मा का नहीं, अपितु किसी देहधारी का वर्णन है । मेरे विचार से उस व्यक्ति का नाम भगवान् ऋषभदेव है । क्योंकि भगवान् ऋषभदेव एक वर्ष तक तपस्या में स्थिर रहे थे । एक वर्ष तक निराहार रहने पर भी उनके शरीर की पुष्टि और दीप्ति कम नहीं हुई थी । 1 व्रात्य शब्द का मूल व्रत है । व्रत का अर्थ धार्मिक संकल्प है, और जो संकल्पों में साधु है, कुशल है, वह व्रात्य है । डाक्टर हेवर प्रस्तुत शब्द का विश्लेषण करते हुए लिखते हैं-- " व्रात्य का अर्थ व्रतों में दीक्षित है अर्थात् जिसने आत्मानुशासन की दृष्टि से स्वेच्छापूर्वक व्रत स्वीकार किए हों, वह व्रात्य है ।" अहिंसा आदि की परम्परा ब्राह्मण संस्कृति से भी पूर्व जैन संस्कृति की देन है । वेद, ब्राह्मण और आरण्यक साहित्य में कहीं पर भी व्रतों का उल्लेख नहीं आया है। उपनिषदों, पुराणों और स्मृतियों में जो उल्लेख मिलता है, वह सारा भगवान् पार्श्वनाथ के पश्चात् का है । भगवान् पार्श्वनाथ की व्रत - परम्परा का उपनिषदों पर भी प्रभाव पड़ा है । और इन्होंने उसे स्वीकार कर लिया । यही तथ्य श्रीरामधारीसिंह 'दिनकर' ने निम्न शब्दों में बताया है - "हिन्दुत्व और जैन धर्म आपस में घुलमिल कर इतने एकाकार हो गये हैं कि आज का साधारण हिन्दू यह जानता भी नहीं कि अहिंसा, सत्य, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003192
Book TitleShraman Sanskruti Siddhant aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalakumar
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1971
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy