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________________ भा. भाषा एवं साहित्य म श्रमण संस्कृति के स्वर २०१ यहाँ हमारा उद्देश्य प्राकृत भाषा का इतिहास न देकर इसकी एक झीनी झाँकी भर प्रस्तुत करना था, और जिससे यह स्वतः स्पष्ट हो जाता है कि प्राकृत साहित्य अपने विकास के सुदीर्घ काल में पर्याप्त विशाल एवं सुदृढ़ साहित्य के रूप में गौरवान्वित था, जिसके अन्तर्गत संगीत, कथा, आख्यायिका, नाटक, सूत्र आदि विधाओं में सजित साहित्य आज भी गौरव की वस्तु है।। वस्तुत: जैन संस्कृति का मूल साहित्य प्राकृत भाषा में ही है । जैन संस्कृति का विशाल आगम साहित्य, जो भारतीय संस्कृति की अनमोल उपलब्धि है, ( अर्ध मागधी)४ प्राकृत भाषा में ही निबद्ध है। समवायांग" और औपपातिक सूत्र के मतानुसार सभी तीर्थकर अर्धमागधी भाषा में ही उपदेश देते हैं, क्योंकि चारित्र धर्म की आराधना एवं साधना करने वाले मन्द बुद्धि स्त्री-पुरुषों पर अनुग्रह करके सर्वज्ञ भगवान् सिद्धान्त को प्ररूपणा प्राकृत भाषा में करते हैं।७ प्राकृत को अर्ध मागधी कहे जाने के दो कारण बताये जाते हैं-प्रथम यह कि यह भाषा मगध के एक भाग में बोली जाती थी, तथा दूसरी यह कि इसमें अठारह देशी भाषाओं का सम्मिश्रण हुआ है। अर्थात् मागधी और देश्य भाषाओं के सम्मिश्रण के कारण इसे अर्धमागधी कहा जाता है। ४. पोराणमद्धमागह भाषानिययं हवइ सुत्त । -निशीथचूणि ५. भगवं च णं अद्धमागहीए भासाए धम्ममाइक्खई। -समवायांग सूत्र पृ० ६० ६. तएणं समणे भगवं महावीरे कूणिअस्स रण्णो भिभिसार -पुत्तस्स "अद्धमागहीए भासाए भासइ"'सा वि यणं अद्धमागही भासा तेसि सव्वेसि अप्पणो परिमाणेणं परिणमइ । -औपपातिक सूत्र ७. बाल-स्त्री-मन्दमूर्खाणां नृणां चारित्र कांक्षिणाम् । अनुग्रहार्थ सर्वज्ञ: सिद्धान्तः प्राकृते कृतः । –दशवकालिक हारिभद्रीय वृत्ति ८. मगद्धविसय भासाणिबद्ध अद्धमागहं, अट्ठारसदेसीभासाणिमयं वा अद्धमागहं । -निशीथचूणि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003192
Book TitleShraman Sanskruti Siddhant aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalakumar
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1971
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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