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श्रमण संस्कृति : सिद्धान्त और साधना ६०० ई० ) और ३. उत्तरकाल की प्राकृत (अपभ्रंश ६०० ई० से ११०० ई०)। इसके अतिरिक्त श्री एस०एम० कतरे ने प्राकृत भाषाओं का एक अन्य वर्गीकरण प्रस्तुत किया है-(क) धार्मिक प्राकृतइसके अन्तर्गत पालि, दक्षिणी धर्मशास्त्रों और उनके बाद की कृतियों की भाषा । अर्ध मांगधी, जैन सत्रोंकी प्राचीनतम भाषा तथा आरसा महाराष्ट्री, शौरसेनी और अपभ्रश जिसमें जैन साहित्य का वर्णनात्मक साहित्य प्रचुर मात्रा में है।
(ख) साहित्यिक प्राकृत-इसके अन्तर्गत महाराष्ट्री, शौरसेनी, मागधी, पैशाची और अपभ्रश तथा उनको उपशाखाएँ परिगणित हैं ।
(ग) नाटकीय प्राकृत-इसके अन्तर्गत महाराष्ट्री, शौरसेनी, मागधी और इनकी शाखाएँ, प्राचीन अर्धमागधी जो अश्वघोष के नाटकों में मिलती है तथा अल्पबोलियाँ, जैसे ढक्की और तक्की आदि हैं।
(घ) वैयाकरणों द्वारा वणित प्राकृत-इनके अन्तर्गत ५ या छ: बोलियाँ हैं जो संस्कृत नाटकों में और मध्य भारतीय आर्य कथासाहित्य में मिलती हैं, जैसे महाराष्ट्री, शौरसेनी, मागधी, पैशाची और अपनी कई बोलियों के साथ अपभ्रंश । इस वर्ग में वे प्राकृत भी आती हैं जो काव्य या संगीत के लिए प्रयुक्त हुई हैं, जैसे भरत का नाट्यशास्त्र या गीतालंकार या नमिसाधु की रुद्रट के काव्यालंकार की टीका आदि ।
(च) भारतेतर प्राकृत-इसके अन्तर्गत धम्मपद प्राकृत की भाषा, जो खोतान में प्राप्त हई और जो खरोष्ट्री लिपि में है, चीनी तर्किस्तान में प्राप्त लेखों की निया और खोतानी प्राकृत है।
(छ) शिलालेखों की प्राकृत- यह अशोककाल और उसके बाद ब्राह्मी और खरोष्ट्री लिपि में लिखी जाती थीं तथा समस्त भारत और लंका में पाई जाती हैं। इसके अन्तर्गत ताम्रपत्र और मुद्राएँ भी आती हैं। और,
(ज) जनप्रिय संस्कृत-हिन्दू, जैन और बौद्ध । इनमें कुछ ऐसे व्यवहार मिलते हैं जो शुद्ध और प्रतिष्ठित संस्कृत में अग्राह्य और अनुचित समझे जाते थे। 3
३. प्राकृत लैंग्वेज एण्ड देयर कण्ट्रीव्यूशन टु इंडियन कल्चर
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