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भा. भाषा एवं साहित्य में श्रमण संस्कृति के स्वर
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कि वह आज भो भारतीय संस्कृति के स्नायुमंडल को झंकृत - निनादित कर रहा है ।
प्राकृत भाषा के अतिरिक्त भारत की विभिन्न भाषाओं में श्रमण संस्कृति पर विपुल परिमाण में साहित्य सर्जना हुई, जिस पर विहंगावलोकन करना यहाँ अभीष्ट है ।
प्राकृत और जैन संस्कृति :
भारतीय आर्यभाषाओं के मध्यकालीन रूप को, जिसका समय लगभग ६०० ई० पू० से १००० ई० तक माना जाता है, प्राकृत का सामान्य नाम दिया जाता है, और इससे वे बीसियों भाषाएँ लक्षित हैं जिनके दक्षिण भारत में काँची से लेकर चीनो तुर्किस्तान में निया प्रदेश तक फैले हुए अवशेष आज भी प्राप्त हैं और जिनके प्रतिरूप और उल्लेख उस काल के धार्मिक और लौकिक साहित्य में मिलते हैं। प्राकृत की प्रतिष्ठित व्याख्या में पालि को इस वर्ग से अलग माना गया है, किन्तु कुछ लोग इसी से प्राकृत काल का आरम्भ मानते हैं । कभी अशुद्ध संस्कृत के कई भेद जिसमें से कुछ का व्यवहार बौद्धों की महायान शाखा द्वारा उनकी 'मिश्रित संस्कृत' में किया गया है, इस वर्ग में सम्मिलित किए गए हैं और कभी अशोक के समय के शिलालेखों को तथा चीनी तुर्किस्तान में खोजी हुई निया प्राकृत इनसे अलग मानी जाती हैं । यद्यपि प्राकृत के कई भेद वास्तव में मिश्रित भाषाएँ मानी जाती हैं, जो संस्कृत से कुछ ही कम बनावटी थीं, और जो अनेक उपजाति समूहों के विस्तृत भूखंडों में फैली हुई थीं, तथापि ये उस काल की बोलचाल की भाषा के रूप में सामने रखी जाती हैं और आधुनिक भारतीय भाषाओं की पुरोगामी सिद्ध की जाती हैं । इस काल की भाषाएँ तीन वर्गों में विभाजित की जा सकती हैं - १. पूर्व काल की प्राकृत (पालि और प्राचीन मागधी - ६०० ई० पू० से १०० ई०), २ मध्यकाल की प्राकृत (शौरसेनी, मागधी - और उनके भेद १०० ई० से
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१. हिन्दी और प्रादेशिक भाषाओं का वैज्ञानिक इतिहास, पृष्ठ ४३ २. प्रभातचन्द्र चक्रवर्ती : लिंग्विस्टिक स्पैकुलेशन आव हिन्दूज,
कलकत्ता वि० १६५५
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