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________________ १६८ श्रमण संस्कृति : सिद्धान्त और साधना में उतने परिमाण में देखने को नहीं आता। कहने का तात्पर्य यह है कि मातृभाषा के माध्यम से किए गए विचार-विनिमय में सीधे हृदय का रागात्मक सम्बन्ध कार्य करता है, उसमें मस्तिष्क का, भाषायी तौर पर किसी भी प्रकार का उलझाव नहीं होता। इसी कारण मातृभाषा में अभिव्यक्त विचारों का ज्यादा मात्रा में अंकन होता है समाज में, तथा इसका परिणाम भी ज्यादा व्यापक, विशद एवं स्थायी होता है। श्रमण लंस्कृति के उन्नायकों में यही बात सामान्यतया देखी जाती है कि उन्होने प्रायः अपने संदेश मातृभाषा में ही दिए हैं। उनका प्रत्येक उद्घोष आत्मा से निकला हुआ, आत्मा के विकास के लिए हृदय की भाषा–मातृभाषा में हुआ, और यही कारण है कि लोगों ने आत्मा के आलोक में हृदय के सहज-सुगम पथ से, उन संदेशों एवं उद्घोषों को व्यापक रूप में अपनाया। आरंभकालीन श्रमण संस्कृति के स्वर प्रधानतः प्राकृत (अर्ध मागधी) भाषा में निःसृत हैं, कि श्रमण साहित्य की सर्जना विशेषतः उस समय में हुई, जबकि सामान्य जनों की भाषा प्राकृत (अर्ध मागधी) थी। संस्कृत भाषा साहित्यिक भाषा के पद पर आरूढ़ हो चुकी थी। उसका जन सामान्य से सम्बन्ध विरल प्राय हो चुका था। प्रकांड पंडितों एवं विद्वानों की ही एक प्रकार से यह सत्ता-भाषा बन चुकी थी। संस्कृत के ज्ञाता, देशभाषा बोलने वाले को असभ्य समझते थे, और देश भाषा-भाषी भी संस्कृत बोलने वाले को अपने समाज से अलग का तत्त्व समझते थे। ऐसी परिस्थिति में श्रमणसंस्कृति के उन्नायकों ने सोचा-जन सामान्य को एक ऐसे उपदेष्टा की अपेक्षा है जो उसकी भाषा में, उसके कल्याण की बात कह सके । उसकी टूटी झोपड़ी में मिट्टी का दिया जलाकर उजाला कर सके । अतः उनकी वाणी में कही गई बात का उन पर ज्यादा प्रभावकारी असर होगा । अतः उस समय में व्यवहृत जन-सामान्य की प्रमुख दो भाषाओं-प्राकृत और पालि में श्रमण संस्कृति की दो धाराओं-जैन संस्कृति एवं बौद्ध संस्कृति के उन्नायकों ने अपने संदेश देने आरम्भ किए। कहना न होगा, जन-सामान्य की भाषा में दिए गए उन संदेशों का कितना गहरा प्रभाव जन-मानस पर पड़ा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003192
Book TitleShraman Sanskruti Siddhant aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalakumar
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1971
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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