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भा. भाषा एवं साहित्य में श्रमण संस्कृति के स्वर
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प्रश्न यह है कि भाषा और मातृभाषा में फिर किस प्रकार की सीमारेखा है ? मेरा अपना दृष्टिकोण है कि भाषाएँ तो प्रत्येक की होती ही हैं, किन्तु बालक अपने शैशवकाल में अपनी माता की गोद से लेकर धरती पर ठुमुक ठुमुक पाँव धरते समय तक जिस भाषा का प्रथम आधान करता है, वही उसकी मातृभाषा है । यही काण है कि हर देश की भिन्न-भिन्न प्रकार की भाषाएँ हैं और एक देश में पुनः भिन्न-भिन्न प्रदेशों की भिन्न-भिन्न मातृभाषाएँ हैं । जैसे भारत में प्रमुख भाषा हिन्दी, इंगलैंड में अंग्रेजी, रूस में रूसी, जापान में जापानी, जर्मन में जर्मनी आदि-आदि । उसी प्रकार भारत मे - बंगला, उड़िया, असमिया, गुजराती, मराठी, मगही, भोजपुरी, मैथिली, बज्जी, तमिल, तेलुगु, मलयालम, कन्नड़ आदि भिन्न-भिन्न प्रदेशों की भिन्न-भिन्न मातृभाषाएँ हैं ।
हम जानते हैं कि किसी भी देश को सामाजिक, राजनीतिक आदि प्रत्येक पहलुओं से एक सूत्र में बाँधने के लिए तथा काम-काज की सुविधा के लिए पूरे देश के लिए एक भाषा की आवश्यकता होती है, जिससे कि एक प्रदेश का व्यक्ति दूसरे प्रदेश में जाकर उस राष्ट्रभाषा अथवा सम्पर्क भाषा के माध्यम से अपना विचार-विनिमय कर पाते हैं । किन्तु प्रश्न यह उठता है कि तब फिर यह प्रादेशिक भाषा क्यों ? उसका विकास क्यों ? उसकी उपादेयता क्या है ? स्पष्ट है, जब दुःख के दिन आते हैं, कष्ट और पीड़ा सहनशीलता की सीमा तोड़ने लगती है, पीड़ित को माँ की गोद की बहुत याद आती है । और, जब माँ सामने आ जाती है, तो माँ की ममतामयी वाणी उसके लिए संजीवनो बन जाती है, हालाँकि उस समय मातृरूपा बहुत सी औरतें उसके पास हो सकती हैं, होती भी हैं, माँ से भी अधिक ममता देने वाले वहाँ बहुत से व्यक्ति हो सकते हैं, होते भी हैं, फिर माँ में वह कौन-सी शक्ति है, जो उसे कठिन पीड़ा के बीच भी स्नेह-सुख की छाँव देती है ? ऐसा क्यों होता है ? ऐसा इसलिए होता है, कि व्यक्ति अपनी माँ में जितनी आत्मीयता पाता है, जितना ममत्व का सागर देखता है, उतना अन्य किसी में नहीं । और यही कारण है कि दूरवासी एकभाषायी व्यक्तियों के बीच परस्पर में बड़ा सौम्य सम्बन्ध होता है । होता अन्य भाषा-भाषियों के साथ भी है, किन्तु वह विशेषतः औपचारिकता लिए हुए होता है, जो एकभाषा-भाषी
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