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श्रमण संस्कृति : सिद्धान्त और साधना
प्रचार-प्रसार के लिए भारत के कोने-कोने में घूमने लगे । प्राणिमात्र के प्रति दयाभाव श्रमण संस्कृति की आधारशिला है और उस समय सारा भारत इस दयाभाव के पूत मन्त्र से गूँज रहा था ।
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उस समय वैशाली जैन-धर्म की प्रमुख स्थली थी । भगवान् महावीर के अनुयायी देश के विभिन्न भागों से वैशाली में आते, जहाँ लिच्छवियों के साथ जीवन के विभिन्न अंगों और उसकी समस्याओं पर विचार-विमर्श किया करते । भगवान् महावीर के देह त्याग के पश्चात् ( ई० पू० ५२७ ) वैशाली जैनधर्म का मुख्य प्रेरणा स्रोत बनी, जहाँ नर और नारी एकसाथ मिलकर भगवान् महावीर के उपदेशों पर विचार-विमर्श करते, चिन्तन-मनन करते । अपनी पुस्तक 'History of Tirhut' में श्री श्यामनारायणसिंह ने वैशाली के विषय में लिखते हुए बतलाया है कि यह स्थान जैन- विचारधारा का मुख्य गढ़ था - "The Followers of Mahavira from different parts of the country visited Vaishali, where the Licchavis used regularly to carry on discourses and disputations on high problem of life. The Jains are said to have been Valient disputants. Both men and women took part in the discourses, at the end of which some of them were united in wedlock on account of their agreement of views or as the outcome of mutual regard for their attainments."
बौद्धधारा :
श्रमण संस्कृति की दूसरी मुख्य धारा बौद्धधर्म है । वतमान कपिलवस्तु, जहाँ भगवान् बुद्ध ने ई० पू० छठी शताब्दी में जन्म धारण किया था, उस समय बिहार का ही अंग था । कपिलवस्तु छोड़कर महाभिनिष्क्रमण के लिए निकले गौतम को मगध के जंगलों ने आकृष्ट किया और वहाँ उन्होंने लगातार छह वर्षों तक कठिन तप किया । अन्त में गया से छह मील दक्षिण एक पीपल वृक्ष के नीचे उन्हें बोधि प्राप्त हुई । वह स्थान आजकल बोधगया के नाम से विख्यात है । बोधि- प्राप्ति के पश्चात् गौतम महात्मा बुद्ध, तथागत, सुगत, आगत, अमिताभ आदि कई नामों से विख्यात हुए । अब
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