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श्रमण संस्कृति के विकास में बिहार को देन :
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जैन धर्म की आधारशिला है । भगवान् महावीर के समय में क्रियावाद, अक्रियावाद, विनयवाद आदि अनेक धाराएँ प्रवाहित हो रही थीं। समाज के लिए कोई निश्चित पथ नहीं था । कोई ऐसा केन्द्र नहीं था, जहाँ सभी धर्मगत या सम्प्रदायगत विरोध दूर करके एक-दूसरे से मिलते और समाज को गुमराह होने से बचाते। सबके सब अपने आप में मग्न थे। ऐसी हालत में भगवान् महावीर का ध्यान भारतीय संस्कृति की जड़ में लगे हुए भेदरूपी कीटाणु की ओर गया और उन्होंने उसे दूर कर समाज और संस्कृति को सुदृढ़ बनाने का सफल प्रयास किया। महावीर ने भेद के मौलिक कारण को अच्छी तरह समझा, उसका स्पष्टीकरण किया, साथ ही उससे बचने की राह भी बतायी ।"
यह बिहार का सौभाग्य ही समझिए कि छठी शताब्दी ई० पू० में श्रमण संस्कृति के दोनों उन्नायक भगवान् महावीर और महात्मा बुद्ध एक ही समय में अवतरित हुए और दोनों को ही साधनाभूमि तथा कर्मभूमि बिहार की वैशाली और मगध की भूमि रही । भगवान् के पश्चात् जैन धर्म फिर जोरों से चल पड़ा। आगे चलकर इस धर्म को एक सम्राट् का भी संरक्षण प्राप्त हुआ । मौर्यवंश के संस्थापक सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य अपने अन्तिम काल में जैनधर्म में दीक्षित हो गए और इसका प्रचार-प्रसार जोरों से होने लगा । उस समय पाटलिपुत्र मगध की राजधानी थी । वैशाली और मगध जैनधर्म के मुख्य केन्द्र थे, जहाँ से अहिंसा, दया और स्नेह की किरणें सारे भारत में विकीर्ण होने लगीं । इम प्रकार हम देखते हैं कि जिस समय बौद्ध धर्म अपने अभ्युदय के शैशव काल में था, उस समय जैनधर्म चारों तरफ फैल चुका था । हाँ, इतना अवश्य कहा जा सकता है कि जैन धर्म में अधिक गतिशीलता उस समय आई, जब भगवान् महावीर का पदार्पण हुआ । दो समानान्तर रेखाओं की तरह श्रमण संस्कृति को ये दो धाराएँ - जैन और बौद्ध ई० पू० छठी शताब्दी में बिहार की पवित्र भूमि से निकलकर सम्पूर्ण भारत में फैलने लगीं और अहिंसा, प्रेम तथा सेवा की त्रिवेणी द्वारा सारे भारत में प्रवाहित होने लगीं । यह युग श्रमण-संस्कृति के उद्भव और विकास का युग था और इसके उद्भव तथा विकास का सारा श्रेय बिहार को ही है। हजारों की संख्या में जैन श्रमण और बौद्ध भिक्षु सत्य, सेवा तथा अहिंसा के
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