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श्रमण संस्कृति : सिद्धान्त और साधना
ऋषभदेव और अरिष्टनेमि का उल्लेख मिलता है। जैन धर्म के इन चौबीस तीर्थङ्करों में ४ तीर्थङ्कर बिहार के ही थे। राष्ट्रसंत उपाध्याय अमरमुनि महाराज ने अपने महान् ग्रन्थ ' चिन्तन की मनोभूमि' में जिन २४ तीर्थङ्करों का परिचय दिया है, उससे पता चलता है कि जैन धर्म के उन्नीसवें, बीसवें, इकीसवें और चौवीसवें तीर्थङ्करों - श्री मल्लिनाथ, मुनि सुव्रतनाथ, श्री नमिनाथ और महावीर वर्द्धमान के जन्मस्थान क्रमशः मिथिला, राजगृह, मिथिला और वैशाली नगर थे । इनमें उन्नीसवें तीर्थङ्कर भगवान् मल्लिनाथ स्त्री- तीर्थङ्कर थे । उपाध्याय अमरमुनि महाराज के शब्दों में"स्त्री-शरीर होते हुए भी इन्होंने बहुत व्यापक भ्रमण कर धर्म-प्रचार किया । चालीस हजार मुनि और पचपन हजार साध्वियाँ इनके शिष्य हुए तथा उनके एक लाख उन्यासी हजार श्रावक और तीन लाख सत्तर हजार श्राविकाएँ थीं ।"
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जैन धर्म को बिहार की सबसे बड़ी देन महावीर हैं । इनका जन्म वैशाली में क्षत्रिय कुण्ड ( सम्प्रति वासुकुण्ड ) ईसा पूर्व ५६६ में चैत्र शुक्ल १३ को हुआ था । इन्होंने ही जैनधर्म का जोरदार संगठन किया तथा सत्य, सेवा, अहिंसा, प्रेम, दया आदि का प्रचार किया । तीस वर्ष की अवस्था में इन्होंने गृहत्याग किया और अपने तप से ज्ञान प्राप्त किया। शेष जीवन इन्होंने प्राणिमात्र के कल्याण में अर्पित किया । ये उत्कृष्ट त्यागी पुरुष थे। जिस समय भगवान् महावीर इस धराधाम पर अवतीर्ण हुए, उस समय सारा भारत वैदिक कर्मकाण्डों एवं हिंसामय यज्ञों से पूर्ण था । भगवान् महावीर ने इन हिंसामय यज्ञों का निषेध किया और प्रेम तथा दया का संचार कर संत्रस्त मानवता को शान्ति प्रदान की । भगवान् महावीर ने ही अनेकान्तवाद और स्यादवाद का सिद्धान्त चलाया तथा सत्य को समझने के लिए वैज्ञानिक मार्ग बतलाया । उन्होंने समझाया कि किसी वस्तु को एक ही दृष्टि से देखना उचित नहीं, अपितु प्रत्येक वस्तु को अनेक दृष्टिकोणों से देखना चाहिए, क्योंकि प्रत्येक वस्तु अनेकात्मक स्वभाव से युक्त है । स्याद्वाद द्वारा वस्तु के अनेकात्मक स्वभाव का परिचय पाना महावीर वर्द्धमान की सबसे बड़ी देन है । भगवान् महावीर के अनेकान्तवादी दृष्टिकोण पर प्रकाश डालते हुए अमरमुनि महाराज ने लिखा है - " अनेकान्तवाद
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