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श्रमण संस्कृति : सिद्धान्त और साधना पहचान लेता है, तब उसको दृष्टि सम्यक् कहलाती है । ७८ इसो से समभाव प्राप्त हो जाता है । प्रज्ञा :
बौद्धधर्म में प्रज्ञा को सम्यग्ज्ञान भी कहते हैं। धर्म के स्वभाव का विशिष्ट ज्ञान प्रज्ञा है ।७९ दृष्टि के संक्लेश का विशोधन प्रज्ञा से ही होता है। ८. प्रज्ञा-प्राप्ति का उपाय बताते हुए कहा हैसत्पुरुषों के ही साथ बैठने, सत्पुरुषों के ही साथ मिलने-जुलने और सत्पुरुषों के अच्छे धर्मों (कर्तव्यों) को जानने से ही प्रज्ञा की प्राप्ति होती है, अन्यथा नहीं।' तथा, जिज्ञासा से ज्ञान बढ़ना है, ज्ञान से प्रज्ञा बढ़ती है । २ श्रद्धा से ज्ञान को बड़ा कहा गया है । 3
प्रज्ञा मनुष्यों का रत्न है।४ प्रज्ञावान् मनुष्य दुःख में भी सुख का अनुभव करता है । ८५ प्रज्ञामय जीवन को ही श्रेष्ठ जीवन कहा है।८६ प्रज्ञा से तृप्त पुरुष को तृष्णा अपने वश में नहीं कर सकती८८ जन्ममरण अपने बन्धन में नहीं डाल सकते।८८ जिस प्रकार हवा से उठी हुई धूल मेघ-वृष्टि से शांत हो जाती है, उसी प्रकार प्रज्ञा से म्वरूप का दर्शन होने पर मन के विकार शांत हो जाते हैं ।८९
७८. बुद्धवचन पृ० २१ ७९. धम्मसभावपरिवेधलक्खणा पञआ। ८०. पाय दिद्विसं किलेसविसोधनं । -विसुद्धिमग्ग १।१३ ८१. सब्भिरेव समासेथ, सब्भि कुब्बेथ सन्थवं । सतं सद्धम्ममाय, पा लब्भति नाचतो॥
-संयुत्तनिकाय १।१।३१ ८२. सुस्सुसा सुतवद्धनी, सुतं पञआय वद्धनं । -थेरगाथा २।१४१ ८३. सद्धाय, खो गहपति, भाणं येव पणीततरं ।—संयुत्तनिकाय ४।४१।। ८४. पञ्जा नरानं रतनं ।
-संयुत्तनिकाय ११११५१ ८५. पा सहितो नरो इध, अपि दुक्खे सु सुखानि विन्दति ।
-थेरगाथा १०।५५१ ८६. पञआजीविजीवितमाहु सेठें ।
-सुत्तनिपात १।१०।२ ८७. पाय तित्तं पुरिसं, तण्हा न कुरुते वसं । -जातक १२१४६७।४३ ८८. किच्छो बुद्धानुप्पादो।
-धम्मपद १४१४ ८६, रजमुहतं च वातेन यथा मेघोपसम्मये । ।
— एव सम्मत्ति संकप्पा, यदा पञाय पस्सति । -धम्मपद १११७
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