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श्रमण संस्कृति : सिद्धान्त और साधना
है और जीवन प्रिय। अतः किसी भी प्राणी की हिंसा मत करो।" ज्ञानी होने का सार यही है कि किसी भी प्राणी की हिंसा न की जाए। अहिंसा ही धर्म का सार है। बस इतनी बात सदैव ध्यान में रखनी चाहिए । पर-पीड़ा में लगे हुए अज्ञानी जीव, एक तो अन्धकार से अन्धकार की ओर जाते हैं और दूसरे, इस प्रकार वैर की परम्परा चल पड़ती है। वैर वृत्ति वाला व्यक्ति जब देखो तब वैर ही करता रहता है। वह एक के बाद एक किए जाने वाले बैर से वैर को बढ़ाते रहने में ही रस लेता है। जो वैर की परम्परा को लम्बा किए रहते हैं, वे नरक को प्राप्त होते हैं। तथा जो भय और वैर से उपरत हैं, मुक्त हैं, वे किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करते। इसलिए साधक को किसी भी प्राणी से बैर-विरोध नहीं बढ़ाना चाहिए।" .
स्वरूप-दृष्टि से सब चैतन्य एक समान हैं। यह अद्वैत भावना ही अहिंसा का मूलाधार है । १२ भ० महावीर के शब्दों में अहिंसा २. (क) सव्वे पाणा पियाउया, सुहसाया, दुहपडिकूला,
अप्पियवहा, पियजीविणो, जीविउ कामा, सब्वेसि जीवियं
पियं, नाइवाएज्ज कंचणं। -आचारांग ११२।३ (ख) सव्वे जीवा वि इच्छंति, जीविउ न मरिज्जिउं । तम्हा पाणिवहं घोरं, निग्गंथा वज्जयंति णं ॥
-दश वै० ६.११ ६. एयं खु णाणिणो सारं, जं न हिंसइ किंचरणं । ___अहिंसा समयं चेव, एतावन्तं वियाणिया ।
--सूत्रकृतांग १११।४।१० ७. तमाओ ते तमं जंति, मंदा आरंभनिस्सिया।
-सूत्रकृतांग १११११११४ ८. वेराई कुव्वइ वेरी, तओ वेरेहिं रज्जति। -सूत्रकृतांग १।८।७ ६. वेराणुबद्धा नरयं उति। -उत्तरा० ४।२ १०. न हणे पाणिणो पाणे, भयवेराओ उवरए। -उत्तरा० ६७ ११. भूएहिं न बिरुज्झेजा -सूत्र कृतांग १।१५।४ १२. तुमंसि नाम तं चेव, जं हंतव्वं ति मनसि ।
तुमंसि नाम तं चेव, जं अज्जावेयव्वं ति मन्नसि ।। तुमंसि नाम तं चेव, जं परियावेयव्वं ति मन्नसि ।
-आचारांग १३५१५
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