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________________ गीता और श्रमण संस्कृति : एक तुलनात्मक अध्ययन १६५ अहिंसा : जैन-दृष्टि में : पूर्वचित प्रश्न का समाधान करते हुए जैन-दर्शन अहिंसा को दो रूपों में विभक्त कर देता है-श्रावक की अहिंसा और श्रमण की अहिंसा । इन सबका स्वरूप संक्षेप में इस प्रकार है : ___अहिंसा की साधना के लिए श्रावक को प्रतिज्ञा लेनी होती है कि 'मैं मन-वचन-काया से किसी भी निरपराध एवं निर्दोष त्रस प्राणी की जान-बूझकर हिंसा न स्वयं करूँगा और न दूसरों से कराऊँगा। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पतिरूप स्थावर जीवों की हिंसा भी व्यर्थ एवं अमर्यादित रूप में न करूँगा और न दूसरों से कराऊँगा।' यह प्रतिज्ञा उसको कमजोर या कायर नहीं बनाती है, अन्याय को चुपचाप सहन करने के लिए भी नहीं कहती है. यह तो वीरों का धर्म है। इससे जीवन-व्यवहार में कोई भी बाधा नहीं आती है और जीवन सुख-पूर्वक व्यतीत होता है। दुर्बल को सताना नहीं और स्वयं भी किसी से त्रस्त नहीं होना, अन्याय का मुकाबला करना, इसमें निहित है। दोनों प्रकार की अहिंसा का स्वरूप समझने के बाद अब यह समझना आवश्यक है कि लोग हिंसा क्यों करते हैं ? और हिंसा क्यों नहीं करनी चाहिए ? अहिंसा का क्या महत्त्व है ? प्रश्नव्याकरण सूत्र में कहा है-कुछ लोग प्रयोजनवश हिंसा करते हैं और कुछ लोग बिना प्रयोजन के भी हिंसा करते हैं। कुछ लोग क्रोधवश हिंसा करते हैं, कुछ लोभवश हिंसा करते हैं और कुछ अज्ञानवश हिंसा करते हैं। किंतु किसी भी जीव को त्रास-कष्ट नहीं देना चाहिए। क्योंकि सब सचेतन प्राणियों को जीवन प्रिय है, सुख सबको अच्छा लगता है और दुःख बुरा । बध सबको अप्रिय २. आवश्यक सूत्र । ३. अट्ठा हणंति, अणट्ठा हणंति । कुद्धा हणंति, लुद्धा हणंति, मुद्धा हणंति । -प्रश्नब्याकरणसूत्र १-१ ४. न य वित्तासए परं। -उत्तरा० २१२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003192
Book TitleShraman Sanskruti Siddhant aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalakumar
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1971
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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