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श्रमण संस्कृति : सिद्धान्त और साधना अहिंसा : गीता की दृष्टि में :
धर्म का मूल अहिंसा है। भारतीय-संस्कृति की आचार-प्रणालो का केन्द्र अहिंसा है और प्राणी-दया उसका प्राण है। मनसा, वाचा, कर्मणा, प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष किसी भी रूप में किसी भी प्राणी को शारीरिक एवं मानसिक किसी भी प्रकार की पीड़ा या हानि न पहुँचाना ही अहिंसा है। अर्थात्, किसी भी सचेतन प्राणी को किसी प्रकार दुःखी न करना ही अहिंसा है।
सभी धर्मशास्त्र सदा से यह कहते आए हैं कि किसी की हिंसा मत करो। यदि सब धर्मों में पाई जाने वाली इस साधारण आज्ञा का पालन किया जाए, तो यह प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या अहिंसा का आराधक अपने सदाचार के कारण दुष्ट जनों के फंदे में अपने को फंसा ले ? या अपनी रक्षा के लिए 'जैसे को तैसा' होकर उन लोगों का प्रतिकार करे ? दृष्टों का नाश हिंसा के बिना हो नहीं सकता। तो क्या किया जाए? क्या कायर और दुर्बल बनकर कोने में बैठ जाया जाए?
प्रश्न का समाधान करते हुए कृष्ण कहते हैं ---नहीं, जो अन्याय है, उसके विरुद्ध लड़ना ही चाहिए। हाँ, उस समय आवेश और शत्रु के प्रति दुर्भावना नहीं हो, राग और द्वेष से रहित होकर युद्ध करो और यदि तुम अपने मन को ऐसो स्थिति में ले जा सकोगे, तो हिंसा असम्भव हो जाएगी। इस स्थिति से अगली स्थिति के विषय में उन्होंने कहा :
जो न तो किसी दूसरे प्राणी को उद्विग्न करता है, और न स्वयं ही किसी अन्य के द्वारा उद्विग्न होता है, जिससे न संसार घबराता और स्वयं भी जो संसार से नहीं घबराता, जिससे न तो लोगों को क्लेश होता है और न जो लोगों से क्लेश पाता है, जो किसी के लिए भी कष्ट का कारण नहीं बनता और न कोई उसे कष्ट का अनुभव करा पाता है, जो हर्ष और क्रोध से, भय और विषाद से अलिप्त है, वही भक्त मुझे प्रिय है। यही स्व और पर की अहिंसा है।" १. यस्मान्नोद्विजते लोको लोकानोद्विजते च यः । हर्षामर्षभयोवेगमुक्तो यः स च मे प्रियः॥-१२।१५ ।
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