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________________ १६२ श्रमण संस्कृति : सिद्धान्त और साधना संस्कृति के अवयव कहे जा सकते हैं । वैदिक और श्रमण दोनों ही संस्कृतियों की प्रधानता रही है । आत्मा के अस्तित्व को दोनों ही संस्कृतियाँ स्वीकार करती हैं । आत्मा के स्वरूप को जानना ज्ञान और ज्ञानमय होना वस्तुतः श्रमणत्व को प्राप्त करना है । इस प्रकार अज्ञान अर्थात् कषायों के कर्म फल का विसर्जन (क्षय) वैदिक और श्रमण दोनों ही संस्कृतियों को इष्ट रहा है । प्रश्न यह है कि इन आत्मा-लोक पर आच्छादित विकारों का विसर्जन किस प्रकार हो ? कौन-सी ऐसी बातें हैं, जिनकी वजह से विकारों का जन्म होता है ? हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, और परिग्रह - ये ऐसी कषायजन्य भाव-परिणतियाँ हैं जिनके उदय से आत्म-आभा सूर्य पर आच्छन्न बादलों की नाई' छिप जाती हैं । तब ऐसी स्थिति में प्राणी जन्म-मरण के चक्र में क्रमानुसार गतिमान रहता है । इन कषायों का अन्त (क्षय) अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रही आत्म-स्वभावों के चिन्तन से सम्भव है वैदिकवेद, उपनिषद्, रामायण, महाभारत आदि, जैन-- आचारांग सूत्र, उत्तराध्ययन सूत्र, भद्र बाहु, कुरूंद, कुंद आचार्य आदि, और बौद्ध-सुत्तपिटक, दीर्घनिकाय, मज्झिमनिकाय, धम्मपद, जातक आदि ग्रन्थों में इन दोनों ही संस्कृतियों के इस प्रकार चिंतन का उल्लेख मिलता है । इस प्रकार कहा जा सकता है कि वैदिक और श्रमण संस्कृति का समन्वयात्मक धरातल नैतिक, उच्च आदर्श, चित्त की शुद्धि, संयम, परोपकार, संतोष, दया, मैत्री, मुदिता, करुणा, प्रेम आदि सदगुणों से संप्रेरित है, जिसके फलस्वरूप काम, क्रोधादि शत्रुओं का विसर्जन हुआ करता है । जगत् और जीवन, लोक और परलोक की उत्कर्षजनित व्यवस्थाओं में वैदिक और श्रमण संस्कृतियों का योगदान स्पष्ट परिलक्षित होता है । जहाँ संस्कारों में सदाशय है और जिनका आधार सत्य पर अवलम्बित है, निश्चय ही वे सभी पद्धतियाँ और पंथ समन्वयात्मक निष्कर्ष पर खरे उतरे हैं । इस दृष्टि से वैदिक और श्रमण संस्कृतियाँ समन्वय के धरातल पर उल्लेखनीय महत्त्व रखती हैं। ★ - डा० महेन्द्रसागर, प्रचंडिया, एम.ए., पी. एच. डी. - Jain Education International ―― For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003192
Book TitleShraman Sanskruti Siddhant aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalakumar
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1971
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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