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________________ ૧૭ वैदिक एवं श्रमण संस्कृतियों के समन्वय का दार्शनिक धरातल सांस्कृति शब्द 'सम् उपसर्ग' के साथ संस्कृत की 'कृ' धातु से संगठित हुआ है, जिसका मूल अर्थ परिष्कृत करना है । भारतीय जनजीवन में सभ्यता और संस्कृति शब्द साथ-साथ व्यवहृत होते आ रहे हैं, किन्तु इनके अर्थ में मूलतः पर्याप्त अन्तर है । मनुष्य की जीवन-यात्रा को सरल तथा सन्मार्गी बनाने वाले वे सभी आविष्कार सभ्य उत्पादन के प्रसाधन तथा सामाजिक, राजनीतिक संस्थाएँ सभ्यता के रूप हैं । दूसरे शब्दों में यही बात इस प्रकार कह सकते हैं कि सामाजिक उत्कर्ष का बाह्य साधनमात्र वस्तुतः सभ्यता है । जबकि संस्कृति प्राणी के अन्तस् चिन्तन, कलात्मक क्रिया-कलाप हैं, जिनसे उसकी समृद्धता सुनिश्चित होती है । व्यक्ति के शारीरिक सौन्दर्य में सभ्यता के दर्शन होते हैं जबकि संस्कृति व्यक्ति का आत्मसौन्दर्य है । संस्कृति में आत्मा का परिष्कार तथा संस्कार सम्मिलित रहता है । आत्म-परिष्कार के लिए संसार में अनादिकाल से प्रयास हुए हैं और आज भी प्रयास जारी हैं । इस दृष्टि से भारतीय संस्कृति का बड़ा महत्व रहा है । भारतीय संस्कृति क्या है ? भारतीय संस्कृति में मूलतः वैदिक तथा श्रमण - जैन और बौद्ध - संस्कृतियों का सम्यक् समीकरण होता है । यहाँ हम भारतीय संस्कृति के समन्वयात्मक दृष्टि की संक्षेप में चर्चा करेंगे । वैदिक का अर्थ है - वेद सम्बन्धी । वेद का अर्थ है - ज्ञान, यथार्थ ज्ञान । यथार्थ ज्ञान से सम्बन्धित समग्र आकार -- संस्कार वस्तुतः वैदिक संस्कृति कहलाती है। इस प्रकार श्रमण क्या है ? यह सम्यक् श्रम पर आधारित है । श्रमण शब्द का व्यवहार जैन और बौद्ध दोनों की संज्ञाओं के लिए होता रहा है । इस प्रकार वे समग्र जैन, बौद्ध संस्कार, जो सम्यक् श्रम पर आधृत रहे हैं, वस्तुतः श्रमण १६१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003192
Book TitleShraman Sanskruti Siddhant aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalakumar
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1971
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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