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वैदिक एवं श्रमण संस्कृतियों के समन्वय
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दार्शनिक धरातल
सांस्कृति शब्द 'सम् उपसर्ग' के साथ संस्कृत की 'कृ' धातु से संगठित हुआ है, जिसका मूल अर्थ परिष्कृत करना है । भारतीय जनजीवन में सभ्यता और संस्कृति शब्द साथ-साथ व्यवहृत होते आ रहे हैं, किन्तु इनके अर्थ में मूलतः पर्याप्त अन्तर है । मनुष्य की जीवन-यात्रा को सरल तथा सन्मार्गी बनाने वाले वे सभी आविष्कार सभ्य उत्पादन के प्रसाधन तथा सामाजिक, राजनीतिक संस्थाएँ सभ्यता के रूप हैं । दूसरे शब्दों में यही बात इस प्रकार कह सकते हैं कि सामाजिक उत्कर्ष का बाह्य साधनमात्र वस्तुतः सभ्यता है । जबकि संस्कृति प्राणी के अन्तस् चिन्तन, कलात्मक क्रिया-कलाप हैं, जिनसे उसकी समृद्धता सुनिश्चित होती है । व्यक्ति के शारीरिक सौन्दर्य में सभ्यता के दर्शन होते हैं जबकि संस्कृति व्यक्ति का आत्मसौन्दर्य है । संस्कृति में आत्मा का परिष्कार तथा संस्कार सम्मिलित रहता है ।
आत्म-परिष्कार के लिए संसार में अनादिकाल से प्रयास हुए हैं और आज भी प्रयास जारी हैं । इस दृष्टि से भारतीय संस्कृति का बड़ा महत्व रहा है । भारतीय संस्कृति क्या है ? भारतीय संस्कृति में मूलतः वैदिक तथा श्रमण - जैन और बौद्ध - संस्कृतियों का सम्यक् समीकरण होता है । यहाँ हम भारतीय संस्कृति के समन्वयात्मक दृष्टि की संक्षेप में चर्चा करेंगे ।
वैदिक का अर्थ है - वेद सम्बन्धी । वेद का अर्थ है - ज्ञान, यथार्थ ज्ञान । यथार्थ ज्ञान से सम्बन्धित समग्र आकार -- संस्कार वस्तुतः वैदिक संस्कृति कहलाती है। इस प्रकार श्रमण क्या है ? यह सम्यक् श्रम पर आधारित है । श्रमण शब्द का व्यवहार जैन और बौद्ध दोनों की संज्ञाओं के लिए होता रहा है । इस प्रकार वे समग्र जैन, बौद्ध संस्कार, जो सम्यक् श्रम पर आधृत रहे हैं, वस्तुतः श्रमण
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