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________________ १६० श्रमण संस्कृति : सिद्धान्त और साधना बल्कि एक ही संस्कृति के दो रूप हैं, दो पहलू हैं। ऐसा प्रायः व्यवहार में देखा जाता है कि जब कोई सिद्धान्त बनता है, तब युगानुरूप परिस्थितियों एवं देश, काल आदि को लक्षित करते हुए, युग की मान्यताएँ एवं जन-मानस के रुझान-यूगबोध को देखते हुए, उसमें संस्कार परिष्कार भी होता रहता है । भारतीय संस्कृति इस दिशा में एक बड़ी उदार संस्कृति है। और, यही कारण है कि यह आज तक असंख्य घातक-प्रहारों एव अवरोधों के बावजूद भी जीवित है । वैदिक संस्कृति एवं श्रमण संस्कृति-दोनों में एक-दूसरे के संस्कारपरिष्कार के उद्दात्त भाव निहित हैं जो लोकमंगल की दृष्टि से अतीव महत्त्वपूर्ण हैं। इस पर से भी मैं यही समझता हूँ कि दोनों कोई पृथक् संस्कृतियाँ नहीं हैं अपितु एक-दूसरे की पूरक हैं--परस्पर एक सस्कृति है। ___इस दिशा में, दोनों ही क्षेत्रों में, उनके अधिकारी मनीषियों के अन्तस्तल में उदारतावादी चितना की अपेक्षा है। आलोचनाएँप्रत्यालोचनाएँ तो युगों-युगों से होती आई हैं, होती रही हैं, किंतु आज युग की मांग यही है कि अल्पसंख्यक अथवा बहुसंख्यक तथा इस प्रकार की अन्य पृथकतावादी वृत्ति का परित्याग कर एक अखंड भारतीय संस्कृति के विकास एवं विस्तार में-सभी भावात्मक योगदान करें। समन्वय का यही पथ सच्चे अर्थ में विश्व संस्कृति, विश्वमानव, विश्वबन्धुत्व एवं विश्वकल्याण का पावन पथ होगा, अन्य कोई नहीं। -डा० पारसनाथ द्विवेदो, एम.ए., पी-एच.डी. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003192
Book TitleShraman Sanskruti Siddhant aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalakumar
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1971
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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