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तुलनात्मक समीक्षा निन्दित समझा जाता था। गृहस्थाश्रमरूपी रथ के स्त्री पुरुष रूपो दो पहिये थे। कर्म विपाक
प्राणियों में जो शारीरिक एवं मानसिक विषय हैं, वह कर्ममुलक हैं। जीव जैसा उत्तम या अधम कर्म करता है, वैसा ही फल भोगता है। कर्म के अनुसार ही भिन्न-भिन्न योनियों में जन्म लेता है और कर्म के अनुसार ही उसे सुख-दुःख मिलता है । मनुष्य जैसा कर्म करता है, वैसा संस्कार बनता है और संस्कार के अनुसार अन्तःकरण की वृत्ति बनती है। वृत्ति के अनुसार जीव की भिन्नभिन्न विषयों में प्रवृत्ति होती है। उत्कृष्ट कर्म आध्यात्मिकता की ओर ले जाता है और अधम कर्म से निकृष्टयोनि को प्राप्ति होती है। ___ इस प्रकार जन्म-मृत्यु, सुख-दुःख का आधार कर्म है। जैन संस्कृति संसार को अनादि और अनन्त मानती हैं । इस अनादि और अनंत संसार में जीव और अजीव दो पदार्थ हैं । जोव चेतन और अजीव जड़ । जीव सिद्ध और संसारी दो प्रकार का होता है। सिद्धावस्था जीव का शुद्ध स्वरूप है और संसारी कर्मबन्धन में बंधा हुआ है। जब आत्मा अपने वास्तरिक स्वरूप को भूलकर पुद्गल द्रव्य की ओर जाती है, तब अज्ञानवश उसमें राग उत्पन्न होता है, राग से द्वेष तथा राग-द्वेष की चिकनाहट में कर्म चिपक जाता है। राग-द्वेष के अभाव में कर्म-बन्धन नहीं होता।।
इस प्रकार हम उपर्युक्त विवेचन पर से इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि वैदिक संस्कृति और श्रमण संस्कृति में प्राय: प्रत्येक क्षेत्र मेंचाहे वह आचार क्षेत्र हो, अथवा विचार क्षेत्र--पमन्वय का व्यापक सूत्र है । समन्वय की इसी भावना ने तो दोनों हो संस्कृतियों को एक उदात्त, अखंड, व्यापक एवं गहन हिन्दू संस्कृति (भारतीय संस्कृति) के खून में समन्वित कर रखा है। ___आत्मा, परमात्मा, जीव, जगत् , बंधन, मोक्ष, पुनर्जन्म, परलोक --प्रभृति ऐसे स्थल हैं, जहाँ पर दोनों ही संस्कृतियों के मध्य पर्याप्त सामंजस्य दिखाई देता है । इस दृष्टिकोण से हम कह सकते हैं कि वैदिक एवं श्रमण कोई भिन्न-भिन्न दो संस्कृतियां नहीं हैं.
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