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श्रमण संस्कृति : सिद्धान्त और साधना आधार पर मानी गई है। उत्तराध्ययन सूत्र में जयघोष मुनि और विजयघोष ब्राह्मण का सम्वाद आता है, जिसमें जयघोष मुनि विजयघोष से कहते हैं कि "जाति से कोई ब्राह्मण नहीं होता। जिसने राग, द्वेष, भय पर विजय प्राप्त कर ली है, जो मिथ्या-भाषण नहीं करता और सर्व प्राणियों के हित में रत रहता है, सच्चा ब्राह्मण वही है। केवल सिर मुडा लेने से कोई श्रमण नहीं कहा जा सकता, ओङ्कार जपने से ब्राह्मण नहीं बन सकता, जङ्गल में वास करने से कोई मुनि नहीं हो सकता और कुश, चीर धारण करने से कोई तपस्वी नहीं बन सकता। समता से श्रमण, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण और तपस्या से मुनि बना जा सकता है। कर्मों से ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र कहा जाता है।" २° आश्रम-व्यवस्था :
वैदिक एवं श्रमण दोनों संस्कृतियों में चार आश्रमों की व्यवस्था बताई गयी है। मनु ने चार आश्रमों का उल्लेख किया है-- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास ।२१ ।
मनु के समान ही जैनधर्म में चार प्रकार के आश्रम बताये हैंब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और भिक्षुक (संन्यास) । २२ ऐसा प्रतीत होता है कि वैदिक संस्कृति के अनुसार ही जैन धर्म में चार आश्रमों की परिकल्पना की गई है। और उनमें गृहस्थ धर्म सर्वश्रेष्ठ स्वीकार किया गया है। क्योंकि गृहस्थ धर्म के बिना अन्य धर्मों का पालन ही नहीं हो सकता।
विवाह करना गहस्थ का परम कर्तव्य कहा गया है। श्रमण संस्कृति के अनुसार स्वयम्वर विवाह को श्रेष्ठ माना जाता था । २3 बहुविवाह की प्रथा अवश्य प्रचलित थी, किन्तु परस्त्रीगमन को
२०. उत्तराध्ययन सूत्र, अध्याय २५ । २१. ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थो यतिस्तथा ।
एते गृहस्थ-प्रभवाश्चत्वारः पृथगाश्रमाः। - मनुस्मृति ६८७ २२. ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थोऽथ भिक्षुकः ।
इत्याश्रमास्तु जैनानामुत्तरोत्तरशुद्धितः ।। -आदिपुराण, जिनसेन २३. सनातनोऽस्ति मार्गोऽयं श्रुतिस्मृतिषु भाषितः । विवाहादिभेदेषु वरिष्ठोहि स्वयम्वरः ।
-आदिपुराण
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