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श्रमण संस्कृति : सिद्धान्त और साधना हिंसा न करने को अहिंसा कहा गया है। मन, वचन और काय से किसी भी जीव को दुःख पहुँचाना या मारना 'हिरा' है । जैन धर्म के अनुसार हिंसा दा प्रकार की होती है--भाव हिंसा और द्रव्यहिंसा। आत्मा में काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि भावों का उत्पन्न होना, 'भावहिंसा' है। और कषायादि के वशीभूत होकर जब एक प्राणी दूसरे प्राणी की हत्या करता है, तो वह 'द्रव्यहिंसा' कहलाती है । श्रमण संस्कृति में दोनों प्रकार की हिंसाएँ त्याज्य हैं ।
वैदिक धर्म में भी अहिंसा को सबसे उत्तम पावन धर्म माना गया है-'अहिंसा परमो धर्म' । महाभारत में अहिंसा को समस्त धर्मों का मूल कहा है " 'अहिंसा सकलो धर्मः' । विष्णुधर्मोत्तर पुराण में कहा गया है कि-अहिंसा, सत्य, दया, प्राणियों पर अनुग्रहये जिसके पास सदा रहते हैं। हे राम! भगवान उससे प्रसन्न रहते हैं।"१६योग दर्शन में समस्त प्राणियों से द्रोह न करना ‘अहिंसा' कहा गया है। भाव यह है कि मन, वचन, काय से किसी भी प्राणी को कष्ट न पहँचाना, अहिंसा है। यह सभी धर्मों, सभी सम्प्रदायों में समान रूप से स्वीकार किया गया है, अतः इसे 'सार्वभौम' धर्म कहा जाता है।
सत्य'-मन और वाणी से जो वस्तु इन्द्रियों द्वारा जैसी देखी गई है, जैसी सुनी गई है, जैसी समझी गई है, उसे उसी रूप में कहना 'सत्य' कहलाता है। समस्त विश्व इसी 'सत्य' पर आधारित है । यह पृथ्वी इसी 'सत्य' पर टिकी हुई है । वेदों में इसे 'ऋत' कहा गया है। सूर्य सदैव नियमित समय पर ही उदित एवं अस्त होता है, संसार निरन्तर गतिशील है, वायु सदैव गतिमान रहती है, इसे ही 'ऋत' कहते हैं, और यही 'सत्य' है। इस प्रकार संसार के समस्त नियम एवं विधान सभी कुछ सत्य पर ही प्रतिष्ठित हैं। तभी तो कहा गया है :
“सत्येन धार्यते पृथ्वी सत्येन तपते रविः । सत्येन वाति वायुश्च सर्व सत्ये प्रतिष्ठितम् ॥"
१७. अहिंसा सत्यवचन दया भूतेष्वनुग्रही । यस्यैतानि सदा राम तस्य दुष्यति केशवः ॥
-विष्णुधर्मोत्तरपुराण
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