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श्रमण संस्कृति : सिद्धान्त और साधना "ब्रह्मचर्य गुप्तस्येन्द्रियस्योपस्थस्य संयमः।" किन्तु वह संकुचित अर्थ यहाँ अभीष्ट नहीं है। अथर्ववेद में कहा गया है कि 'ब्रह्मचर्य एवं तप से राजा राष्ट्र की रक्षा करता है, ब्रह्मचर्य के द्वारा ही आचार्य शिष्यों के शिक्षण की योग्यता अपने में संपादन करते थे। १० उपनिषदों में ब्रह्मचर्य का विशेष महत्त्व प्रतिपादित किया गया है । छान्दोग्योपनिषद् में तो यहाँ तक कहा गया है कि यज्ञ, उपवास आदि जितने भी पवित्र कर्म हैं, वे बिना ब्रह्मचर्य के निरर्थक हो जाते हैं।''
उपनिषदों में ब्रह्मचर्य के साथ तप का भी वर्णन किया गया है । अथर्ववेद में ब्रह्मचर्य के साथ तप का उल्लेख आया है। संयम के विना न ब्रह्मचर्य सिद्ध होता है और न तप । अतः तप के लिए संयम को आवश्यक बताया गया है। सुख-दुःखादि द्वन्द्वों की सहन-शक्ति 'तप' कहा जाता है। बिना इन्द्रिय-संयम के सुख-दुःखादि द्वन्द्वों की सहनशीलता नहीं आती। तपस्या की सिद्धि के लिए संयम' और 'ब्रह्मचर्य' दोनों ही अत्यन्त आवश्यक हैं। श्रमण संस्कृति में आत्मशुद्धि के लिए तप परमावश्यक माना गया है और आत्मशुद्धि जीवन का परम लक्ष्य है। तप दो प्रकार के होते हैं-आभ्यन्तर और बाह्य ।
दान-दीन-दुखियों की सहायता करना तथा लोभ से निर्मुक्त होना 'दान' है। वैदिक युग में दान का बड़ा महत्त्व था। ईशावास्योपनिषद् में बताया गया है कि 'किसी के धन का लोभ मत करो। (मा गृधः कस्यस्विद् धनम्)। क्योंकि धन से अमरता की आशा नहीं की जा सकती। १२ तैत्तरीयोपनिषद में बताया गया है कि दोनदुखियों की धन से सहायता करनी चाहिए, किन्तु वह श्रद्धा से करे, अश्रद्धा से नहीं । प्रसन्नता से देना चाहिए भय से नहीं । १३ श्रमण १०. ब्रह्मचर्येण तपसा राजा राष्ट्र हि रक्षति । आचार्यो ब्रह्मचर्येण ब्रह्मचारिणमिच्छते ।।
-अथर्ववेद ११॥५॥४ ११. छान्दोग्योपनिषद् ८ । ५।१ - ४ १२. अमृतत्वस्य तु नाशास्ति वित्तेन -बृहदारण्यकोपनिषद् २।४।२ १३. तैत्तरीयोपनिषद् १।११ ।
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