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तुलनात्मक समीक्षा
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भारतीय संस्कृति का मूल आधार है-तप, त्याग, संयम और आचार । वैदिक-परम्परा के अनुसार यह जीवन एक यज्ञ है। तप, दान, आर्जव, अहिंसा और सत्य-ये ही इस जीवनयज्ञ की दक्षिणा हैं। जिस प्रकार विना दक्षिणा के यज्ञ निष्फल होता है, (हृतयज्ञोऽदक्षिणः), उसी प्रकार बिना तप, दान, सत्य आदि के पालन के यह जीवन निरर्थक है। वृहदारण्यकोपनिषद् में इन समस्त-सद्गुणों को तीन प्रकारों (दम, दान और दया) में समाहित कर दिया गया है। ऐसा कहा जाता है कि एक बार प्रजापति के पास उनकी सन्ताने देव, मनुष्य और असुर शिक्षा प्राप्ति के हेतु गये और प्रार्थना की कि भगवन् हमें उपदेश दीजिए। तब प्रजापति ने सबको 'द' का उपदेश दिया। दम, दान और दया । इस 'द, द, द' के सिद्धान्त में ही भारतीय संस्कृति की आत्मा निहित है। दम, दान, दया-ये तीन ही उपनिषदों के प्रमुख सिद्धान्त हैं। वेद, आगम, पुराणों में इसी की महत्ता का वर्णन है। श्रमण संस्कृति में भी ये प्रमुख तत्त्व स्वीकार किये गये हैं। उनमें भी दम, दान और दया को आत्मोन्नति का मार्ग बताया गया है । ____दम-आत्मनिग्रह को 'दम' कहा जाता है, इसी को संयम' भी कहते हैं। चारित्रिक शुद्धता के लिए आत्मसंयम अत्यावश्यक है। आत्मसंयम और इन्द्रियों के दमन से परब्रह्म का साक्षात्कार होता है। केनोपनिषद् में तो 'दम' को ब्रह्मसम्बन्धी रहस्यज्ञान का आधार बताया है। व्रत पालन की दृष्टि से इन्द्रियों की अनियन्त्रित प्रवृत्तियों को रोकना 'संयम' है । ब्रह्मचर्य भारतीय संस्कृति का प्रमुख अंग है। श्रमण सस्कृति में ब्रह्मचर्य का पालन आवश्यक बताया गया है । वे मन, वचन, काय से इन्द्रियों के संयम, मनोविकारों के अवरोध तथा वासनाओं के उन्मूलन को 'ब्रह्मचय' कहते हैं। उन्होंने आत्मसंयम को सर्वोत्कृष्ट गुण माना है। योगदर्शन में 'ब्रह्मचर्य' का प्रयोग संकुचित अथ में किया गया है।
७. अथ यत् तपो दानमार्जवहिंसा सत्यवचन मित ता अस्य दक्षिणा ।
-छान्दोग्योपनिषद् ३।१७।४ ८. बृहदारण्यकोषानिषद् ५१ ६. तस्यै तपो दम, कर्मेति प्रतिष्ठा-केनोपनिषद् ४।८
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