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श्रमण संस्कृति : सिद्धान्त और साधना
विकास की संभावनाएँ बढ़ रही हैं। सामान्य धर्म के लक्षणों के सामान्य स्वरूप पर सबकी स्वीकृति है। समन्वय का सबसे बड़ा आधार है इन गुणों को विशेष धर्मों की अपेक्षा अधिक महत्त्व देना क्योंकि बिशेष धर्म इन सामान्य धर्मों की पुष्टि के लिए ही हैं अतः विशेष धर्म के आचरणों के प्रकार के औचित्य की कसौटो इन सामान्य धर्मों को बनाना चाहिए। यह देखना बहुत जरूरी है कि कहीं विशेष धर्मों का आचरण का दुराग्रह इन सामान्य धर्मों की हत्या तो नहीं कर रहा है। इसके बिना तो न धर्म की कल्पना सम्भव है और न धर्मों के समन्वय की। धर्मों या सम्प्रदायों में जो भेद है वह इन सामान्य धर्मों को विशेष पद्धतियों से साकार करने तया मानव के आचरण में इन्हें उतारने पर है। अर्थात यह भेद मूलतः पूजा पद्धतियों का भेद है। ऊपर हम अधिकारी-भेद और वासना-भेद का सिद्धान्त मान चुके हैं, अतः ऐसी कोई पूजा-पद्धति नहीं हो सकती है, जो सबके लिए उपयुक्त हो और सबके लिए समान रूप से कल्याणकारी हो। पूजा-पद्धतियों का भेद तो रहेगा ही, क्योंकि उसका मानव के सहज संस्कारों का भिन्नता से सम्बन्ध है। पूजा-पद्धतियों या विशेष धर्मों के क्षेत्र में केवल पारस्परिक सद्भावना एवं सहिष्णुता ही समन्वय का आधार बन सकती है। प्रत्येक धर्मावलम्बी में दूसरे धर्मावलम्बी के प्रति आदरबुद्धि एवं सद्भावना होनी चाहिए। उसे अपनी विशेष पूजा-पद्धतियों का इस प्रकार निर्वाह करना चाहिए जिससे वे दूसरों की.भावनाओं को ठेस न पहुँचाएँ। उसे अपनी पूजा-पद्धतियों के बाहरी उपकरणों की साजसज्जा की अविकलता, उन पूजा-पद्धतियों से पूष्ट होने वाले धर्मात्मापने अथवा अपनी उकृष्टता के अहंकार की पुष्टि की अपेक्षा इन पूजापद्धतियों के प्राप्य मानवीय गुणों पर अधिक ध्यान देना चाहिए। आखिर तो पूजापद्धति किसी वस्तु को प्राप्त करने का साधन ही है न, और वह साध्य है मानवता। उस मानवता का बलिदान करके जब पूजा-पद्धति का संरक्षण दुराग्रह की सीमा तक पहुँच जाता है तब धार्मिक संघर्ष होते हैं। अतः धार्मिक समन्वय के लिए इस दुराग्रह का परित्याग आवश्यक है। सब धर्मावलम्बी अपने-अपने स्थान पर ठीक हैं। वे अगर मेरी तरह को पूजा-पद्धति में विश्वास नहीं रखते तो अधर्मी हैं, इस अहंकार और अन्धविश्वास का समूल नाश करने पर ही सवधर्म-समन्वय सम्भव है।* -डा. भगवत्स्व रूप मित्र, एम.ए., पी.एच.डी.
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